पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/६७

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शृङ्गारनिर्णय पुनः सवैया। कलि के भौन में सोवत रीन विलोकि ज. मायबे को भुज काढ़ी ॥ सैन में मेखि चूरौन के चूरन तूरन तेह गई गहि गाढ़ी। दास महाउर छाप निहारि महा उर ताप मनोज को बाढ़ी। रोसभरी अँखिया नित पूरति मूरति ऐसी बि- सूरति ठाड़ी ॥ १६५ ॥ पुनः कबित। ल्याई बाटिकाही सो सिँगार हार जानती हौं टन को लाग्यो है उरोजन में घावरी दौरि दौरि टहल के महल लै के बादिही बि- गायो उर चंदन हगंजन बनाव रो। मेरी कहा दोस दास बात जौन बूझि लौ नौ अपनीही सू- झि तू तो भरि भाई भाव रौ। पौतपटवारे को बोलावन पहाई मैं तो पौत पट काहे को गाइ ल्याई बावरी ॥ १६६ ॥ प्रोषितम का दोहा। कहिये प्रोषित भर्ट का पति परदेसी जानि । चलत रहत श्रावत मिलत चारिभेद उनमानि ॥ 4