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श्यामास्वप्न

दिर--हाथ में कश्वाल लिए बैठे थे. कंठ में बड़े मोतियों का कंठा-- और मयूरहार उर में झूलता था . पछाहीं पगड़ी अड़ी थी . कानों में मोती के बाले कपोलों पर झलकते थे . चंद्रहार भी मन को चुराए लेता था . मैंने तो आज तक ऐसे बहुमूल्य रत्न कहीं नहीं देखे थे की यद्यपि पुरानी ग.दी थी पर ए लोग सदा सादी चाल से रहे और आश्चर्य नहीं कि इनकी चालीसी की चालीसी श्यामसुंदर के मुकुट के एक मणि के भी मोल को न पाती . इनके इस चित्र में मुख से वीरता और माधुर्य्यता (माधुर्य) दोनों पाई जाती जो इनके कुल और काव्य-कुशलता के हेतु थी. नेत्रों से प्रेम टपकता था ललाट से अशेष विद्वत्ता जान पड़ती थी उस समय ए दो और बीस बरस से अधिक न रहे होंगे . डाढ़ी पर एक एक अंगुल बाल थे , यह छबि मेरे जी में गड़ गई--और शोच किया कि उस समय मुझसे इनसे क्यों परिचय न हुआ .

इसी गोल मेज के किनारे एक और चौपहल मेज धरा था . इसपर सुंदर काले काठ की मंजूषा में एक सुरीला बाजा रक्खा हुआ था • इस अरगन बाजा को श्यामसुंदर जब मौज होती बजाते और सुनाते . गाने बजाने का भी इनको व्यसन था . उसी कुटीर के पश्चिम भाग में एक परदा पड़ा था और उसके उस तरफ उनका पलंग बिछा था . एक नजर में जो कुछ देखा तुमको सुनाया--अब हमारे भेट का हाल सुनो . श्याम- सुंदर मुझै बैठाकर सब काम छोड़ वार्तालाप करने लगे. उन्होंने पूछा "कुशल तो है-- मैंने उत्तर दिया--"आपके रहते हमैं अकुशल कैसी ? आप तो भले हैं ?"

( साँस लेकर ) "हाँब हुत अच्छे और अब तुम्हें देख और भी अच्छे हो गए--तुम तो देखती थीं मैं कैसा बीमार हो गया था . वैद्य ने ओषधी की, अब अच्छा हो गया , पहले से कुछ अच्छा हूँ--पर एक वज्र पड़ा" इतना कह कर एक लंबी सांस ली .