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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१०५

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श्यामास्वप्न

मैंने कहा--"क्या ? कुशल तो है-ईश्वर ऐसा न करै-" मैं तो कुछ जान गई थी कि वही यात्रा की बात होगी, पर मुझे भी उनके बिना कैसे चैन पड़ता यही सोचती रही

श्यामसुंदर ने उत्तर दिया--"वजू यही कि अब कुछ दिनों के लिए हम को तुमसे विलग होना पड़ेगा . वैद्य ने मेरे शरीर की अवस्था देख कर कहा है कि जलवायु दूसरे देश का सेवन करना होगा नहीं तो शरीर और भी बिगड़ जायगा. शरीर की रक्षा मुख्य है--तो अब मैं दो एक दिन में जाऊँगा, तुम्हारा तो मेरे साथ जाना नहीं हो सक्ता और इधर तुम्हारा वियोग . अब नहीं मालूम क्या होगा"--इतना कह आँखों में आँसू भर मेरे दोनों हाथों को अपनी छाती से लगा लिया और चुप हो गये . सिसकी भर रोने लगे और फिर कुछ भी न कहा .

मैंने उनके नेत्र आंचर से पोंछ दिए और उनके सिर को छाती से लगा कर उन्हें समझाया . पर उनके नैन सावन भादों हो गए थे सावन भादों की सरिता कहीं रुकती हैं . उनके नैनों से ऐसा धारा-प्रवाह उमड़ा कि मेरा आंचर भींज गया . मैंने उसास ली और रोने लगी. प्रीति की नदी उमड़ आई मैंने मन में कहा कि अंत को यही होता है- पर अब तो लग ही गई थी छूटती कैसे. मैंने श्यामसुंदर से कहा "कुछ कहोगे भी कि बस रोते ही रहोगे . मुझे भी तुमने अपने दुःख दिख कर दुःखी बना दिया . तो अब तुम्हें कौन समझावै"--"मुझसे क्या पूछती हौ . मैं तुम्हें छोड़ कैसे जा सकूँगा--जिसको नैन प्रतिदिन देखते थे उसको अब बहुत दिनों तक न देखेंगे . अधिक कहता हूँ तो अभी द्वारे पर भीर लग जायगी, और समय भी अधिक इसमें नहीं लगाना चाहिए . तो सुनो, मेरा जाना तो अब ठीक हो चुका • इस शरीर के लिये जाना ही पड़ा मेरी तुमसे यही विनती है कि तुम इस दीन और मलीन अपावन जन को मत भूलना . मैं तुम्हें अपना पता लेखकर कई लिफाफे ५