सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७४
श्यामास्वप्न

इस साल श्यामापुर में मेरी फाग नहीं हुई, कारण तुम जानती हो, लिखने का प्रयोजन नहीं, बस-समझ जावो इसी से मैंने टर दिया सो देखो इस साल की फाग ने मेरे वदन में आग लगा दी है, तन में वियोगाग्नि की भस्म रूपी अबीर लगी है, नैन पिचकारी हो गए हैं और ताप की ज्वाला में तन जरा जाता है . शोक और चिंता रूपी जुगल कपोलों में पीर की राख लगी है . अधिक क्या लिखें, तुम्हारा वियोग सहा नहीं जाता . इस पावन वन में केवल मैं ही अपावन होकर विचरता हूँ. मुझै वन के जंतुओंने भी दीन मलीन और पापी जान तज दिया . जब तुमसे विलग हुए तब और कौन जगत में मेरे संग लग सक्ता है . मुझै पक्षी भी देख भागते हैं . शुक सारिका भी क्रूर शब्द सुनाते हैं—अब कहाँ तक कहैं . इसका उत्तर देना, मैं भी कुछ दिनों में आ पहुँचता हूँ. धीरज धरना और मुझे कदापि अपने जी से न टारना

दोहा

चातक तुलसी के मते स्वातिहु पियै न पानि ।
प्रेम तृषा बाढ़त भली घटे घटैगी कानि ।।

इस पावनारण्य से मैं मार्जारगुहा को जाऊँगा, वहाँ से वीरपुर होते वाणमर्यादा नामक ग्राम में दो दिन निवास करूँगा, वहाँ पहुँचकर मार्ग का वृत्त लिखूगा पर तुम इस पत्र के उत्तर देने में विलंब न करना . पूर्वोक्त युक्ति से पत्र मुझै अवश्य मिलेंगे . इन वनों का भी संपूर्ण वर्णन-पर संक्षेप यदि हो सका तो तुम्हारे मनोरंजन के लिए भेजूंगा-कृपा रखना .

द्वापर-फाल्गुण तुम्हारा वही अपावन
पावनारण्य. श्यामसुंदर-"

यह पत्र मुझै वृंदा के द्वारा मिला-उसे हरभजना ने दिया था मैंने पढ़कर छाती से लगाया और बार बार चूमा . मैंने उसी क्षण इसका उत्तर लिखा . पावनारण्य. .