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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/११९

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श्यामास्वप्न

इसी पीतवन में तुम्हारे प्रेमपत्र ने मुझे सनाथ किया और हूँ . मेरा शरीर और मन पीररहित हैं . मृगया के अनंतर मैं इस सर्ज के तरे बैठा हूँ. धीर समीर मेरे श्रम को मिटाती है-तुम्हारे शरीर को स्पर्श करके आती अवश्य होगी , तभी तो मेरे ही-तल को शीतल करती है . तुम्हारी पाती ने आज जो मुझे आनंद दिया-ईश्वर ही साक्षी (है) -सब व्यवस्था तो पूर्व पत्र में लिख ही चुके हैं ".

"बुधवार ४--आज पीतवन में डेरा है . आगे नहीं बढ़े ."

"वृहस्पति ५--पीतवन से आज चल के पुष्पडोल में डेरा हुआ, यहाँ कुल्लुक नाला सघन बन से निकला है . इसी के तट पर आज बिकट कटक पड़ा . बनैले जंतुओं के भयानक रव का दव कैसा सुनाई पड़ता है . आधी रात में सब सून सान परा है केवक हूँमा की हुँकारी की झांई पर्वत के कंदरों में बोलती है ."

"शुक्र ६--आज भी पुष्पडोल में रहे काम बहुत था .

"शनिवार ७--पुष्पडोल से रत्नशिला यह शैलमय वनोद्देश ऐसा सघन और विचित्र है कि ऐसा मैंने इस प्रदेश में पूर्व नहीं देखा था . शार्दूल गज गवय भालू इत्यादि समूह के समूह इतस्ततः घूमते दिखाई देते हैं . यहाँ केवल पगडंडी राह है • मन चलता है कि इस बिजन बन में एकांत हो केवल तुम्हारे ध्यान में मग्न हो बैठे"

"रविवार ८--रत्नशिला से सरलपल्ली. इस पल्ली में केवल तीन घर हैं . दूध, दही कुछ नहीं मिलता, बन का अन्न भी दुर्लभ है . किसी प्रकार से निर्वाह कर लिया . यह दण्डकारण्य का प्रदेश दर्शनीय है . हा देव हमारी श्यामा को क्यों बिलग कर दिया ."

"सोमवार ९--सरलपल्ली से यमपुरी यह पुरी साक्षात् यम की पुरी है . यहाँ का जल बड़ा दुःखदाई और ज्वरादिक अनेक रोगों को .