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श्यामास्वप्न

सुधारस पीले'-मैं चुप रही , श्यामसुंदर मेरा चुम्बन ले बोले-"लो प्यारी हमारी तुम्हारी शुद्ध प्रोति का अन्तिम चुम्बन है-लो--बार बार लो."

मैंने बड़े प्रेम से चूमा लिया पर लाज के मारे फिर सिर न उठा सकी-और चादर ओढ़ नैनों को छिपा घर के (की) ओर चली .

श्यामसुंदर तब तक देखते थे जब तक मैं उनके नैनों के (की) ओट न हुई. अंत को मोड़ के पास पहुँचते ही एक बार हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया और वे ललचौहीं नजर से मुझे देखते रहे . अब तो संध्या हो गई थी . गली चलती थी-दीप प्रज्वलित थे-मुझे नाहक श्यामसुंदर इतनी देर विलमार रहे थे-पर यह तो प्रेम का झोका था- की धारा कभी रुक सकी है--ज्यौंही मैं मोड़ से अपने घर की ओर मुड़ी विष्णुशर्मा आ पहुँचा, लाल बनात का कानों को ढकनेवाला टोपा दिये, रंगीन कौषेय का दोगा पहिने हाथ में कमंडलु लटकाए-श्वेत' धोती पहिरे- --गटर माला गले में--बनाती बस्ते में पाठ की पोथी कांख में दबाए-नंगे पैर-त्रिपुंड्र धारन किए-भस्म चढ़ाए-लंबी लंबी छाती को छूनेवाली श्वेत डाढ़ी फटकारे तांत्रिक का रूप बनाए आ पहुँचा-इसे देख मैं ऐसी डरी जैसे बाज की झपेट में लवा लुक जाता है वा सिंह को देख हरिनी सूख जाती है-बलिपशु जैसे यजमान को देखै-सर्प के सन्मुख छडूंदर-सिचान के आगे मुनैया इनकी ऐसी गति मेरी भी उस समय हुई . आगे पाँव न उटे-कँपने लगी- करेजा धड़क उठा-पीली हरदी के गाँठ सी सूख गई-यद्यपि उन्होंने अभी तक कुछ भी नहीं कहा था तो भी भयभीत हो · काँपती थी-सच पूछो तो चोर का जी कितना-विष्णुशर्मा मुझे देख ठठके गृध्र दृष्टि से मुझे देखा और चीन्ह लिया. इनने मुझे श्यामसुंदर के कुटीर से निकलते देख लिया था या धनेश नाम के महाजन के द्वारे से देखा यह नहीं कह सक्ती पर जैसा मैं अभी कह चुकी मैं सूख तो गई थी . विष्णुशर्मा से और मुझसे