सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९३
श्यामास्वप्न

कुछ नाता भी लगता था पर संबंध बहुत दिन पहले से टूट गया था.यही तो और भी भय का कारण था -विष्णुशर्मा बोला-"बाई कहाँ गई थी ?"

मैंने कहा-'दर्शन के लिए."

विष्णु . "अकेली रात को क्यौं गई ?"

"अकेली तो नहीं थी वृन्दा, सत्यवती, सुलोचना इत्यादि सभी तो रहीं-वे अगुआ गई मैं पीछे रह गई थी-इतना कह कर मैं शीघ्र चली और फिर उसको और पूछने के लिए अवसर न दिया . विष्णुशर्मा कुछ हकलाता था, इसीसे दूसरा प्रश्न करने में विलंब लगा इतने में तो मैं घर पहुँची और माँ के पास बैठी . माँ ने उस दिन कुछ पपची इत्यादि पक्वान्न बनाए थे . मुझसे खाने को कहा और मैं उधर सुमुख हुई. विष्णु शर्मा अपने घर गया पर मन में ये सब बातें गुनता गया . उसके मन में भरम पड़ गया था पर कोई प्रमाण न होने के कारण मौन रह गया तो भी जब जब अवसर पाता आपुस के लोगों में निन्दा कर बैठता . श्यामसुंदर के भय से सभी काँपता था . जानबूझ कर भी सभी अनजान सा बन जाता. यहाँ के एक और ग्रामाधीश महाशय थे . उनका नाम वज्रांग था . जैसा नाम वैसा ही गुण भी था . उनका नाम सुनते ही सब दुष्ट थर्रा जाते . प्रजा तो उनके हाथ की चकरी थी . भले और दुष्ट सभी मैन के नाक थे . जैसा कहते वैसा करते, उनके डर से शत्रुओं की अबला सदा रोया करतीं, शत्रु लोग स्वयं इधर उधर निःशंक भ्रमन करने में शंकित रहते थे इनका कुल सदा से उइंडता में विख्यात चला आया है . इनके पिता द्विजेन्द्रकेसरी की कहानियाँ अद्यापि कही और गाई जाती हैं जिस सुबली की संधि के निमित्त विदित शूरवीर कंचनपूरा- धीश ने भी पयान किया . बहुत कहाँ तक कहूँ-

"इंद्र काल हू सरिस जो आयसु लांघे कोय ।
यह प्रचंड भुजदंड मम प्रतिभट ताको होय" ।।

.