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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१३४

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श्यामास्वप्न

ये महाशय श्यामसुंदर के परम मित्र और सहायक थे . सब विद्या लौकिक इन्हें आती थी . सब बातों में कुशल-मुशल से उदंड भुजा- सदा कुशलपूर्वक सकुटुंब यहीं रहते थे . विष्णुशर्मा ने वज्रांग से सब कुछ कह दिया. वांग ने हँस कर इन्हें डाटा और कहा "तुम मौन रहो- तुमसे कुछ संबंध नहीं-अपनी सूधी राह आया जाया करो--" उस दिन से विष्णुशर्मा ने अपना मुह सी लिया . पर चार कान होते ही बात बिजुली की चिनगारी की भाँति चारों ओर विथर जाती है . मेरे पिता ने भी किसी भाँति सुन लिया . इधर उधर अपने सखों (सखाओं) से पूछपाछ की पर कुछ जीव न पाया इसी से चुप रहे-पर मुझे संदेह है कि क्या वे हमारा और श्यामसुंदर का प्रेम नहीं जानते थे क्यों नहीं ? अवश्य, पर क्या प्रेम रखना बुरा है ? प्रेम न रक्खै तो क्या द्वेष ? अब उस बात से कुछ प्रयोजन नहीं. जिसके जी की वही जानें- मुझे क्या पड़ी थी जो खुचुर करती . किंचित् काल में सब भूल गए- मैं तो यही जानती थी कि किसी को कुछ ज्ञात नहीं, इसी में भूली रही . क्या करूँ ऐसे समय में ऐसा ही होता है . इसी से सब कहते हैं प्रीति अंधी होती है . इसमें उपहास और निंदा सभी होती हैं पर जो मनुष्य इसमें फसता है उसे कुछ भी नहीं सूझता . सूझै कैसे-आँख हों तब तो सूझै-

नेकु अवलोकैं जाके लोक उपहास होत

ताही के विलोकिबे को दोठि ललचात है

जाही विरहागि से दमार सी लगी है देह

गेह सुधि भूली ने नयो दिन रात है ।

कैसे घरों धीर सिंह विकलं शरीर भयो

पीर कहा जानैरी अहीर वाकी जात है

मन समुझाय कीन्हो केतिक उपाय तऊ

हाय कथा एते पर वाही की सुहात है ।।