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श्यामास्वप्न

मानो पोखराज ते पिरोजा भयो मानिक भो
मानिक भए पै नील मनि नग है गयो ।"

अधिक क्या कहूँ श्यामसुंदर ने मनभाई कर लिया . मुझे भी उनका इतना मोह लगा था कि रात दिन समागम की कथा मुख से नहीं छूटती थी .

श्यामसुंदर ने मुझे अपनी अंक से वियुक्त नहीं किया . वे तो मुझे अपने हृदय से चपकाए रहे-बार बार चुंबन का लेना देना होता था मानौ जोबन की हाट आज सेंत में लुटी जाती हो . वे मुझे गले से लगा बोले-"सुनो प्यारी--

जियतें सो छबि टरत न गरी
मुसकिराय मो तन गलबाही दै चूम्यौ जब प्यारी । ध्रुव ।
करि इक ठौर बैठि रस बातें भुजा भुजा सो मेली
मुख में मुख उरसो उरझान्यो उरज गेंद अलबेली।
ताहीं समै निसंक अंक मधि भरि भुज जबै लगाई
है ससंक करि बंक नैन मनु डंक मारि लपिटाई ।
अधर अधर घर घरकत हियरो कच घर जबै बटोन्यौ
कदलीचाँपि चारु रस सुंदर सिसकी भरति निहोयौ ।
लाय लंक कर कंपित छतियन मुतियन माल गिरानी
बाल बेलि मदनासव छाकी सुरत सीव तन पानी।
श्यामा हू तन पुलकित पल्लव अगुरिन मुख निज ढाँपी
घूमत मोहि निवायौ ता छन मनौ प्रेम रस नापी।
जलकन कलित सरीर सरोरुह झलकत बुंद सुहाते
विलुलित अलकन लपटि ललाटहिं पौनहु सुखद बहाते ।
तीर नीर ग्रीषम के वासर सिकता सेज सुहाई
मनौ मदन निज काम जानि कै मुक्त कर बगराई ।