पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१४९

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अथ तृतीय प्रहर का स्वप्न

"जिनके हित त्यागि कै लोक की लाजहिं संगही संग में फेरो कियो
हरिचंद जू त्यों मग आवत जात में साथ घरी घरी घेरो कियो।
जिनके हित मैं बदनाम भई तिन नेकु कह्यौ नहिं मेरो कियो ।
हमैं व्याकुल छोड़ि के हाय सखी कोउ और के जाय बसेरो कियो॥"

हा ईश्वर ! क्या यह स्वप्न था कि प्रत्यक्ष "हमैं ब्याकुल छोड़ि के हाय सखी कोउ और के जाय बसेरो कियो"-इसके क्या अर्थ थे. यह कौन सा मंत्र था किसने कहा, कब कहा, दिनमें कहा कि रात में सामने कहा कि पीठ पीछे; कानमें कहा कि और कहीं; मुझे कुछ स्मरण नहीं. सोचते सोचते ध्यान सागर में एक सीप हाथ लगी उसको खोलते ही बड़े बड़े मोती निकले-इतने बड़े थे कि दो दो आँख रहते भी न सूझ पड़े. क्या करूँ पाना और न पाना बराबर था, पाई के क्या किया जो किसी काम न आए. इच्छा हुई कि किसी श्वेतद्वीपधाले की दूकान से एक जोड़ी चश्मा मोल लाते तब तो यह करिश्मा भी दिखता. दूकान कहाँ थी जो ऐसे शीघ्र मिलती. पर रेल तो थी ही. उसी पर बैठ के चलने की इच्छा हुई-इतने में कलकत्ते के स्टेशन पर मनोरथ पर बैठ पहुंचे. स्टेशन के कपाट बंद थे, ये लोहे के बने थे ऐसे पुष्ट थे कि नष्ट के भी दुष्ट बाप से न खुल सकै. इन्हीं कपाटों में कई बार माथा फोड़ा-हथियार लेकर तोड़ा, पर यह जोड़ा ऐसा था कि तनिक न टसका. मन में सोचा कि सूर्य का सतमुँहा घोड़ा आवै तब तो यह दुमुहा द्वार खुलै पर आवै कैसे . यही ( इसी) सोच में तो एक चौकड़ी की कड़ी बीत गई . वह (उस) बूढ़ी ने तो हमैं अनेक प्रकार के जादू सिखा ही दिये थे--सिखाना क्या बरन सब कामरूप कामाक्षा को झोली में