पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/३५

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'हाथ न आई' वाक्य में अन्त्यानुप्रास ( तुक) लाने का भी प्रयत्न है । यमक के लोभ से ही तमचुर, जो संस्कृत ताम्रचूड़ का अपभ्रंश है तमचोर कर दिया गया है। इस प्रकार अनुप्रास और यमक लाने का जहाँ तहाँ सचेतन प्रयास पुस्तक में आदि से अंत तक मिलता है जो पिछले खेवे के रीतिकालीन कवियों का ही प्रभाव है। इसके अतिरिक्त इस पुस्तक की भाषा बहुत ही अव्यवस्थित है। खड़ी बोली गद्य में कहीं कहीं ब्रजभाषा के प्रयोग, कहीं बुन्देलखंडी शब्द-भंडार मिलते रहते हैं और व्याकरण-संबंधी अशुद्धियों का तो कुछ कहना हो नहीं- प्रत्येक पृष्ठ में दो-चार अशुद्धियाँ तो साधारण बात हैं । एक उदाहरण देखिए :

जब जब मेरी और उनकी चार आँखें होतीं मेरा बदन कदंब का फूल हो जाता. आँखों में पानी भर आता और तन में पसीने के बूंद झलक उठते. जाँघु थरथरा उठती, बदन ढीले पड़ जाते और वसन शिथिल हो जाते. श्यामसुंदर भी कभी कभी कहते कहते रुक जाता- रसना लटपटा जाती. और की और बात मुँह से निकल परती, फिर कुछ रुक कर सोचता और कथा की छूटी डोर सी गह लेता चकित होकर वृंदा की ओर देखता कि कहीं उसने यह दशा लख न ली हो. (पृ० ५६)

स्पष्ट है कि यह भाषा काव्य के लिए उपयुक्त मानी जा सकती है परंतु गद्य के लिए अत्यंत अव्यवस्थित ही मानी जायगी । 'तन में पसीने के यूंद झलक उठते' व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध है-'तन में पसीने की बूंदें झलक उठती' होना चाहिए था; फिर निकल परती', 'छूटी डोर सी गह लेता', 'यह दशा लख न ली हो' आदि प्रयोग ब्रजभाषा के हैं और काव्य के लिए ही विशेष उपयुक्त हैं खड़ी बोली गद्य में 'गह लेना', 'लखना' आदि का व्यवहार नहीं होता। सच तो यह है कि जगमोहन सिंह कवि थे और काव्य की भाषा ही वे लिख सकते थे और उसी n