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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/५१

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श्यामास्वप्न

जब कि छोटे छोटे भी राजों को अमित अधिकार था होते थे और उसी अंधाधुंदी में न्याय होने में विलंब हुआ .

इस हेतु इस निराशित सत्कुलोत्पन्न और सभ्य युवा के हृदय में उन प्रभुओं से बदला लेने की उमंगें उठा करतीं, उसके दुःख और वेदना ऐसी प्रबल थी कि उसी उमंग में वह यह कह उठता क्या कोई शक्ति आकाश की वा पाताल की मेरा विनय नहीं सुनती ? क्या मुझै त्राण न करैगी ? क्या मैं अपनी प्रिया के प्रेम और बदला लेने की आशा तज दूँ ? नहीं नहीं यदि मुझे क्षण भर भी कोई वैर भंजाने का अवकाश दे तो मैं वैकुंठ और प्रेम दोनों दे दूं.

यह वाक्य उसने (वह) उसी पियांर पर बैठे बैठे सहस्रों बार कहता प्रकाश की आशा लगाए था कि भुइहरे के कारागार के फाटक का अर्गल किसी ने पीछे खींचा . लोहे की सांकर खनखनाती बाहर पत्थर के गच पर गिरी और द्वारपाल हाथ में दिया लिए आया,

प्रकाश उस चिन्ता कवलित युवा के मुख पर पड़ा जिस्के भूरे बाल, काली आँख और विमल आनन उसके किसी सत्कुलीन क्षत्रिय होने के सूचित (सूचक) थे . “मुझसे क्या माँगते हो" युवा अपने कटासन से युगपत् चिहुकता हुआ पूरा खड़ा होकर बोला “यह तो मेरे रातिव (ब) का समय नहीं है. सचमुच यह काम तो आप रात को करते हो . अब तो प्रातःकाल होता होगा, पर क्या आप यह कहने आए हो कि मैं (मेरा) बंदीगृह से मोक्ष हुआ” युवा ने ये शब्द बड़ी जल्दी कहे और प्रसन्न होकर बोला "हाँ मेरे मोक्ष की आज्ञा ल्याए हो तो कहो" इतना कह हाथ बाँध खड़ा हो रहा

जेलर ने कहा “युवक ! ऐसे स्थान में सुख समाचार सुनने की अपेक्षा दुःखदायक समाचार सुनने को सदा प्रस्तुत रहना चाहिए तो भी आज ( समाचार ) है".