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श्यामास्वप्न

जेलर ने पूछा-"तो क्या तुमने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है ?” युवा ने कहा है ! क्या उन्है अपराध गिनते हो . प्रकृति के अनुसार किसी को प्रेम करना जिस स्वभाव से बड़े बड़े अभिमानी मुनि भी नहीं छूटे हैं अपराध समझते हो ?"

जेलर ने कहा “प्रेम की दृष्टि से किसी ऐसी स्त्री को देखना जिसकी सगाई किसी महापुरुष से हो चुकी हो पाप है और इसका दंड केवल वध है"

"वध !" अपने दिन निकट जान वह दुःखी बोला “यह तो बड़ा भयानक है ऐसा नहीं हो सकता तुम स्वप्न देखते हो वा तुम्हारी भ्रांति है मनुष्यों का अन्याव और कुटिलता इस सीमा तक नहीं पहुँचती" .

"प्रबोधचंद्रोदय या कपटनाग से बलिष्ठ शत्रु हों तो ऐसा होना कुछ आश्चर्य नहीं जिस दिन तुम इस कारागार में बैठे थे उसी दिन तुम्हारा अंत हो चुका था".

युवा ने कहा "तुम न्यायाधीश के चित्त को कैसे जान्ते हो तुम उसके एक चाकर हो वह ऐसे चित्त के विकारों को तुमसे कभी नहीं कहने का"

जेलर ने कहा “मैं इसे भुगत चुका हूँ और सच पूछो तो मैं अभी तक बंदी हूँ मेरे प्राण केवल इसी प्रतिज्ञा पर बचे कि जन्म भर अपने शेष दिन बिताऊँगा” युवा ने कहा “तुम्हारा अपराध क्या था ?" जेलर ने उत्तर दिया “इसको क्या पूछते हो . पर पहिये के नीचे पिसकर मरना यही मुझपर दण्ड हुआ था"

"तो इस प्रकार दासत्व छोड़कर बचने का क्या और कोई उपाय न था ?" जेलर ने कहा "कुछ नहीं, पर ठहरो एक बात भूल गया था एक बड़ा पाप इस्से भी बढ़कर था उस पर प्रायः आरूढ़ हो चुका था किंतु मैं जेलर रह