पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४
श्यामास्वप्न

मेरे भले स्वभाव ने मुझे बचाया . इसी भाँति दास बनकर अपने दिन बिताना अच्छा पर उस पाप को करके यदि इन्द्र या कुबेर हो जाऊँ तौ भी निषिद्ध है".

युवा कांप कर बोला-"क्या वह ऐसा भयानक था ?" जेलर ने उत्तर दिया “बस मुझसे मत कहलाव" इतना कह वह ऐसा ऐंठा और डरा मानों इसके भीतर कोई भूत या यमदूत हो . युवा ने प्रार्थना की "दया कर इसे बताने का वरदान तो अवश्य दीजिये मेरा चित्त इसके सुन्ने को बड़ा व्यग्र और चिंताकुल हो रहा है देखो यह मेरी थैली है और उसकी (का) द्रव्य सब तुम्हारी (तुम्हारा) है . मैं तुझे देता हूँ कदाचित् इससे तुम्हारा कोई काम निकले पर मेरा तो कुछ भी नहीं",

जेलर थैली को पंजों में पकड़कर बोला "इस सुवर्ण के लिये अनेक धन्यवाद है यह एक ऐसी बात है कि जिससे मेरी नाड़ी शिथिल और आंते संकुचित हो जाती तो भी सुनो यह बात प्रसिद्ध है पर केवल इसी कारागार के भीतों के भीतर ही. डेढ़ से बरस पहिले एक विद्वान् जिसके रात दिन उस गुप्त महा-विद्या के रहस्य ढूंइने में बीते थे इसी बंदीगृह का बंदी हुआ . वह तंत्र में ऐसा निपुण था और ऐसे ऐसे मंत्र जंत्र जानता था कि प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल, डाकिनी, शाकिनी, योगिनी सब उसके वशीभूत हो गई थी. मेरी भांति उसको भी पहिये के नीचे दब कर बध का दण्ड हुआ था परंतु केवल इसी विद्या के बल से बच गया क्योंकि उसने एक मंत्र पढ़कर नरक के एक पिशाच को सिद्ध किया और केवल स्वतंत्रता, धन, पौरुष, अधिकार और दीर्घायु के हेतु अपना तन, आत्मा, और स्वयम् आप उसके हाथ बिक गया . वह मंत्र जो इसने सिद्ध किया था अद्यावधि इसी भांत पर गहरा खुदा है लोग कहते हैं कि यह उसी के हाथ का खोदा है और इसके मिटाने में मनुष्य जाति मात्र का परिश्रम व्यर्थ है . बस यही बात थी और अभी तक जो चाहे इतना बलिदान देकर सिद्ध कर