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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/६४

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श्यामास्वप्न

चामीकर नूपुर चरन चम चम होत
चली चक्रधर पै मिलन चाव मन में-
तारन समेट तारापतिहिं लपेट मानों
राकाराति चली जाति चाव से चमन में-"

तू समुद्र मंथन काल में समुद्र से निकला है यह पुराण की उक्ति ठीक जान पड़ती है क्योंकि अभी तक तू उसी उदय पर्वत से बार बार निकला करता है .

तेरा बिंब मंडल अद्यापि अरुण है क्योंकि तूने इंद्र की नायिकाओं का यावक का अधर चूमा है .

कहाँ तक तेरा प्रभाव गावै . जितना तेरे विषय में कहैं वह थोड़ा उस शोभा को देखता ही था कि एक नवीन बाला गिरि के शिखर पर इस चंद्रमा को अपनी छबि से लजाती प्रकट हुई . इसकी सर क्या चंद्र कर सक्ता था ? नहीं, जैसे चंद्रजोत ( महताब ) के सामने दीप की कोई बात भी नहीं पूछता . सूर्य के सन्मुख खद्योत प्रकाश नहीं कर सकता वैसे ही इसके प्रभामंडल ने चंद्रमंडल को आक्रमण कर लिया , बाणभट्ट ने जो कादंबरी और महाश्वेता की प्रशंसा की वह भी सब तुच्छ जान पड़ी . कालिदास ने जो कुमारसंभव में पार्वती की, बाल्मीकि ने जो सीता, मंदोदरी और तारा की बड़ाई की वह सब पीछे पड़ गई . श्रीहर्ष वर्णित नल की दमयंती, कालिदास कथित दुष्यंत की शकुंतला, गोतम की अहल्या, ययाति की देवयानी, अज की इंदुमती, चंद्र की रोहिणी इत्यादि इसको देख इस समय सब लोप हो गई-इनका रूप और गुण सब केवल पुस्तकों में रह गया . अब छाया भी नहीं दिखाती . उसको देख मेरे हृदय में यह श्लोक उठा-

तन्वी श्यामा शिखरिदशना पक्क बिम्बाधरोष्ठी
मध्ये क्षामा चकितहरिणी प्रेक्षणा निम्ननाभिः ।