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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/९७

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श्यामास्वप्न

निकल चुके थे . मैं यद्यपि उनसे ढीठ थी तो भी मान्य और पूज्य शब्दों को छोड़ कभी और प्रकार के वचन न कहे . उनका काम सब काम को छोड़ करती जब कभी वे प्यासे होते और अपनी दासी को भी इंगित करते तो मैं ही उठकर शीघू उनको जल ला देती . ईश्वर जाने वे उस जल को अमृत या अमृत का दादा समझते थे, पर उनके प्रति रोम से यही प्रकट होता कि वे प्रेम के पथिक और मुझ पर दयालु हैं .

इस प्रीति की रीति को कहाँ तक कहूँ . यह दइमारी साँपिन सी काटती है किसी मंत्र में सामर्थ नहीं कि इसका विष उतारै . एक दिन श्यामसुंदर भोजनोत्तर अपनी शय्या को सनाथ कर रहे थे कि सत्यवती किसी काम के लिए उनके पास ठीक दुपहर को गई और उनकी आज्ञा से उन्हीं के निकट बैठ गई . कुछ काल तक इधर उधर की बातें हुईं, फिर उन्होंने मेरी चर्चा निकाली . सत्यवती बहुत कम बोलती थी . उन्होंने जो जो बातें उस्से पूछी उनका यथार्थ उत्तर न पाया क्योंकि सत्यवती एक तो इतनी पुष्ट बुद्धि की न थी और दूसरे उसको लाज भी थी . हँस कर रह जाती . हार मान श्यामसुंदर ने एक दोहा मुझे लिख भेजा . वह यह है-

जो बाला अलि कुंतलन अँगुरिन सों निरुवार ।
सो चुराय कै मो हियो गई कटारी मार ।।

इस दोहे को उनने बड़े डर के साथ एक कागद के टुकड़े पर लाल लाल अक्षरों से लिखा और कमल के कोष में रखकर सत्यवती के हाथ भेज दिया . सत्यवती ने मेरी माता मुरला के समक्ष देकर कहा "जिजी ! इस कमल का छतना कैसा पीला है टुक देख तो सही" इतना कह नैन मटकाए. मैंने पूछा “यह कहाँ से लाई है ?" उसने कहा "श्यामसुंदर ने बड़ी कृपाकर यह फूल तुझे भेजा है और मुझसे कहा कि श्यामा को देकर यह कहना कि "यह मेरा हृदय कमल का कोष है मैंने श्यामा को समर्पण कर दिया है" इतना कह चुप हो गई . मैंने जान लिया कि इसमें