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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/९८

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श्यामास्वप्न

कुछ कारण है, और फूल को ले जाकर अपनी उसीसे की गदिया तरे दबा दिया और फिर अपने घर के कारबार में लग गई • माता कुछ ध्यान न देकर कुछ और कृत्य करने लगी . मैंने स्नान किए . तुलसी की पूजा कर हुलसी, भोजन कर शयनागार को गई . घर के संकीर्ण होने के कारन जिस कोठरी में मैं सोती थी उसी में पोथी पत्रा और लेखन के साधन धरे रहते थे . गरीब का घर कहाँ तक अच्छा हो. चित्त में तो फूल की समानी थी देह आनंद के मारे फूली सी जाती थी और यह तरंग उठै कि श्यामसुंदर के 'हृदय कमल के कोष' को देखू तो सही क्या है . उन्होंने तो 'समर्पण' ही कर दिया है . इस रूपक को घरवालों ने नहीं समझा था. जिस समय सत्यवती फूल लाई और श्याम- सुंदर के कहे को कहा मेरे मन में तो चटपटी समानी थी . मैंने कमल को उठाया . बदन कदंब हो गया . पत्तों को टार के कोष में देखती क्या हूँ कि एक पाती जो प्रेम रस की काती थी लपेटी हुई धरी है . मैंने उसे-

"करलै चूमि चढ़ाय सिर हिय लगाय भुज भेट ।
पियतम की पाती प्रिया वाँचत धरत लपेट ॥"

मैंने उसके भीतर का दोहा पढ़ा . कई बार पढ़ा . पढ़ते ही पीरी पर गई और मन में जान गई कि मैं उनके नैनबानों का निशाना हुआ चाहती हूँ. हुआ क्या चाहती हूँ होई गई. मेरे तन में अतन का भाव कुछ कुछ आ चला था-यद्यपि मुग्धता बनी रही तो भी ज्ञान की झलक आ गई थी, इसी से सब कुछ थोड़ा थोड़ा समझ जाती . इस समय अनेक भाव उपजे एक मन हुआ कि पत्र का उत्तर लिख दूं फिर एक मन हुआ कि न लिखू . अंत में श्यामसुंदर के विश्वास और प्रेम ने मुझसे लिखवा ही लिया और मैंने अपनी सिधी साधी मति के अनुसार एक पत्र लिखा जिसे मैं तुमसे कहती हूँ-