पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१००

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Pinter+H umagar भक्तिसुधास्वाद तिलक । शुभघरी है। चाहत मुखारविन्द, अति ही प्रानन्द भरि, ढरकत नैननीर, टेकि ठाढ़ो छरी है ।। तऊ न प्रसन्न होत, छन छन छीन ज्योति, हजिये कृपाल, मति मेरी अति हरी है । “करो सिन्धु पार, मेरे यही सुखसार," दियो स्तन अपार, लाये वाही ठोर फेरी है ॥ २६ ॥ (६००) पातिक तिलक । दिव्य वन, चन्दन, मणि और सुवर्ण के भूषणों से, उनके शरीर की रचना शृङ्गार करके सिंहासन पर बैठाय धूप, दीप, नैवेद्य, आरती के अनन्तर भूषण वनादि न्योछावर करके, राक्षसों को रोझ पारितोषिक दिये । उस घड़ी को अति शुभदायक माना। और श्रीप्रभु का भाव करके सुवर्ण की छड़ी लेके प्रतीहार की भाँति सम्मुख खड़े हो, उनके मुखारविन्द का सप्रेम दर्शन करने लगे और आपके नेत्रों से आनन्द का जल चलने लगा, तथापि उस मनुष्य के मुख में प्रसन्नता का लेश भी न दीख पड़ा, वरंच क्षण क्षण प्रति उसकी चेतना (चेष्टा) क्षीण ही होती जाती थी, उसकी आँखों से आंसू बहते थे और उसके मन में यह भय बढ़ता जाता था कि इन सब सत्कार पूर्वक, मुझे ये सब वलि दे देंगे। श्रीविभीषणजी ने प्रार्थना की कि "इस दास पर कृपा करके कुछ अाज्ञा दीजे, क्योंकि आपको उदास देखके मेरी मति सभीत हो रही है" तब वे बोले कि "मुझे समुद्र पार उतार दीजे, मुझको तो इसी में परम सुख होगा। __ तब श्रीविभीषणजी बहुत रत्न देके फिर उसी ठौर सिन्धुतीर उनको ले आये ॥ (३९) टीका । कवित्त । (८०४) "राम" नाम लिख, सीस मध्य धरि दियो, “याको यही जल पार करै," भाव सांचो पायो है । ताही ठौर बैठयो, मानो नयो और रूप भयो, गयो जो जहाज सोई फिरि करि प्रायो है ।। लियो पहिचान, पूछयो सब, सो बखान कियो, हियो हुलसायो, सुनि, विनैकै चढायो है । पखो नीर कूदि, नेकु पाय न परस कलो, हलो मन देखि, रघुनाथ नाम भायो है ॥३०॥ (५६९)