पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९९

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८० ....... श्रीभक्तमाल सटीक । (२०) श्रीविभीषणजी। श्रीसीतारामभक्त, लंकेश श्रीविभीषणजी की भक्ति तथा शरणागति को वर्णन कर सके ऐसा कौन जन है ? तथापि कुछ थोड़ा सा कहा ही जाता है, सो चित्त लगाके सुनिये। देखिये कि भात समय इनका नाम लेना बड़ा ही मंगलदायक है। और श्रीरामायणजी में जो इनकी कथा है, सो तो प्रसिद्ध है ही, एक नवीन इतिहास यों है- (३७) टीका । कवित्त । (८०६) भक्ति जो विभीषण की कहैं ऐसो कौन जन, ऐ पै कछु कही जाति सुनो चित्त लाइक । चलत जहाज परी अटकि, विचार कियो, कोऊ अंगहीन नर दियो लै बहाइकै ॥ जाइ लग्यो टापू ताहि राक्षसनि गोद लियो, मोद भरि राजा पास गए किलकाइकै । देखत सिंहासन ते कूदि परे, नैनभरे, “याही के आकार राम देखे भाग पाइकै" ॥२८॥(६०१) बात्तिक तिलक एक वणिक की जहाज चली जाती थी। किसी कारण से अटक गई, उसने बहुत यत्न किये पर नहीं चली। तब वणिक ने ऐसा विचार करके कि समुद्र के देवता ने रोका है, उसके लिये किसी मनुष्य को बलि की भाँति समुद्र में गिरा दिया। वह मनुष्य श्रीरामकृपा से मरा नहीं, वरंच "लंका टापू" के तीर पर जा लगा। उसे राक्षसों ने देखा, और वे बड़े आनन्द से उसको अपने गोद में उठाके, बहुत खिलखिलाते हुए, राक्षसेन्द्र "श्रीविभीषणजी" के समीप ले गये। उस समय श्रीविभीषणजी श्रीरामविरह अनुराग में छके प्रभु ध्यान करते हुए बैठे थे, आप इस मनुष्य को देखते ही सिंहासन से कूद पड़े, क्योंकि मनुष्यरूप का दर्शन आपको एक उद्दीपन ही हो गया। ऐसा विचारने लगे कि “इसी की नाई मेरे स्वामी नराकार विग्रह श्रीगमजी हैं, इनके दर्शन इस समय बड़े भाग्य से पाये" इस भाव से नयनों से प्रेमाश्रु वह चले ॥ (३८) टीका । कवित्त । (८०५) रचि सो सिंहासन पै लै बैठाए ताही छन, राक्षसन रीमि देत मानि