पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१०२

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tion -mun@MAHAME भक्तिसुधास्वाद तिलक । भी वहां से चलके पंपासर के पास जा छुपी, और वहीं वन के फल मूल से निर्वाह करती हुई दिन विताने लगीं ॥ (४०) टीका । कवित्त । (८०३) वन में रहति, नाम “सवरी" कहत सव, चाहत टहल साधु,तनु न्यून- ताई है। रजनी के शेष, ऋषि आश्रम प्रवेश करि, लकरीन बोझ धरि- आव, मन भाई है ॥ न्हाइवको मग झारि, कांकरनि वीनिडारि. बेगि उठि जाइ, नेकु देति न लखाई है। उठत सबारें, कहैं "कौनधौ चहारि गयो,” भयो हिये शोच, “कोउ बड़ो सुखदाई है" ॥३॥ (५६८) वात्तिक तिलक। उसी वन में रहती थीं, इनको सब “सवरी” ही कहते थे। इन्हें संतों की सेवा की चाह विशेष थी, परन्तु अपनी नीच जाति जानि के साधुवों के समीप नहीं जाती थीं। तथापि विना सेवा किये नहीं ही रहा गया, तब कुछ रात रहते श्रीमतंगादि ऋषि जनों के आश्रम में लकड़ियों के बोझ रख पाया करती थीं, मन में इससे सुख मानती थीं. और स्नान के मार्ग की कंकड़ियां भी रात्रि ही में बहार के चली आया करती थीं जिसमें कोई देख न लेवे । श्रीरामभक्त ऋषिजन प्रभात उठके इस टहल को देख विचारते कि "मार्ग को झाड़ बहार के लकड़ियां रख जानेवाला सुखदायक कौन है ?"॥ (४१) टीका । कवित्त । (८०२) बड़ेई असंग वे "मतंग" रस रंग भरे, घरे देखि वोक, कह्यो “कौन चोर आयो है ? कर नित चोरी, अहो ! गहो वाहि एक दिन, विना पाप, प्रीति वाकी मन भरमायो है ।" बैठे निशि चौकी देत शिष्य सब सावधान, बाइगई,गहिलई, कांपै,तनुनायो है । देखत ही ऋषी जलधारा वही नैनन ते वैनन सो कह्यो जात, कहा कछु पायो है ॥३२॥ (५६७) दात्तिक तिलक । सब ऋषियों में बड़े ही प्रसंग श्रीराम-रंग से भरे श्रीमतङ्गजी लक- ड़ियों का बोझ धरा देखके बोले कि “हमारे सुकृत का चोर यह कौन भाता है ? जो नित्य ही चोरी से सेवा करके चला जाता है । उस प्रीति