पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१०३

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-no-bi- sama+MerentMMला++rt- M a mamp + +- +-++ ++ ++ श्रीभक्तमाल सटीक । वान को विना देखे उसकी प्रीति ने मेरे मन को चपल कर रखा है। रात्रि में जागके उसको पकड़ो।" रात को शिष्य लोगों ने सावधान रहके चौकी देके उसको पकड़ा। उससे शिष्यों ने पूछा कि तू ने यहाँ लकड़ियां पहुंचाने के लिए किसी से कुछ पाया है ?॥ __अतिभय से वह कांपती हुई पाँवपर गिरपड़ी। देखते ही श्रीमतङ्गजी के नेत्रों से प्रेमानन्दजल की धारा चलने लगी। और ऐसे अकथ अानन्द में मग्न हो गए मानो कोई महा अलभ्य वस्तु पाया है। (४२) टीका । कवित्त (८०१) ___ डीठी ह न सोही होत, मानि तन गोत छोत, परी जाय सोच-सोत, कैसे के निकारिये । भक्ति को प्रताप ऋषि जानत निपट नीके "कैऊ कोटि विप्रताई यापै वारि डारिये ।।"दियो बास आश्रम में, श्रवण में नाम दियो कियो सुनि रोष सवै, कीनी पाँति न्यारियै । सवरी सों कह्यो “तुम राम दस्शन करो, मैं तो परलोक जात, आज्ञा प्रभु पारियै ॥३३॥” (५६६) वार्तिक तिलक । श्रीसवरीजी की तो दृष्टि भी मुनिवरजी के सामने नहीं होती थी, अपनी जातिको अति नीच मानके सोचरूपी प्रवाह में पड़ गई। इधर श्रीमतङ्गमुनिजी सोच विचार के प्रवाह में पड़े कि इसको सोच के सोत (धारा) से कैसे निकालूं ? क्योंकि ऋषीश्वरजी "श्रीरामभक्तिजी" का प्रताप भली प्रकार जानते थे। शिष्यों से कहने लगे कि यह जाति की तो नीच है सही, परन्तु इसकी भक्ति पर तो कई कोटि ब्राह्मणाभिमान को न्योछावर करना योग्य है ।" निदान सवरीजी को अपने आश्रम ही में निवास दे करके महामंत्र श्रीसीतारामनाम श्रवण में सुना दिया। इस वार्ता को सुनके और सब मुनि जनों ने अति रोष करके आपको अपनी ज्ञाति पंक्ति से न्यारा कर दिया। ___ इस बात का कुछ हर्ष विषाद श्रीरामभक्त “मतङ्ग" मुनिजी को लेश भी न हुआ। श्रीसवरीजी सेवा में तत्पर होके रहने लगी। कुछ काल में श्रीमतङ्गजी के देह त्याग का समय था पहुँचा, श्रीसवरीजी से आपने कहा कि "मुझे तो अब इसलोक में रहने की प्रभुकी आज्ञा नहीं है, श्रीरामधाम