पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१०४

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मातुपाता५ mmvt + ++ + 1 ++++ ++144001 - +-+ - Ho t + uptang -- --- को जाता हूं, परन्तु तुम यहाँ ही बनी रहो।" इतना सुन श्रीसवरीजी अत्यन्त व्याकुल हुई। आपने समझाके कहा कि “मेरे इस आश्रम में 'परब्रह्म परमात्मा श्रीरामचन्द्रजी अपने अनुज श्रीलक्ष्मणजी' के सहित आवेंगे, तू उनका दर्शन पूजन सप्रेम करना। तब श्रीरामधाम को आना " ऐसा समझाके श्रीमतगजी परमधाम को पधारे। ( ४३ ) टीका । कवित्त (८००) गुरु के वियोग हिये दारुण लै शोक दियो, जियो नहीं जात, तऊ राम आसा लागी है। न्हाइवे को बाट निशि जाति ही वहारि सब, भई यो अवार ऋषि देखि व्यथा पागी है ॥ छुयो गयो नेकु कहूँ, खीजत अनेक भाँति, करिकै विवेक गयो न्हान, यह भागी है । जल सो रुधिर भयो, नाना कृमि भरि गयो, नयो पायो शोच, तौह जानै न अभागी है ॥३४॥ (५६५) वात्तिक तिलक । श्रीसवरीजी को श्रीगुरु-वियोग से बड़ा ही दुःसह दुःख हुआ कि जिसमें वह प्राण को नहीं रक्खा चाहती थीं, पर श्रीरामरूप अनूप के दस्शन की लालसा ने प्राणों को निकलने न दिया । आप मुनियों के स्नान के पथ को रात ही को झार आया करती थीं। एक दिन कुछ विलम्ब हो गया, प्रतिपक्षी एक मुनि ने श्रीसवरीजी को देख लिया, इससे श्रीसवरीजी भय से व्यथित हुई। वन का मार्ग पतला तो होता ही है, मुनि, किंचित् छू जाने से, क्रोध करके अनेक दुर्वचन बोले ॥ ___ अपने मन में विचार के उस मुनि ने फिर जाके स्नान किया। और श्रीसवरीजी भागके अपनी कुटी में चली आई। मुनि जब स्नान करने लगे, तो श्रीरामभक्त सवरीजी के प्रति अपराध से, जल रुधिर हो गया, और देखते ही देखते उस सर में कीड़े भी पड़ गए । मुनि को यह एक नया शोच हुआ तथापि इस बात को तो न समझे कि श्रीसवरीजी को नीच मान के दुर्वचन जो कहे, और उनके स्पर्श के अनन्तर पुनः स्नान किया, तिसी से इस सर का जल रुधिर हो गया, किन्तु भक्ति भाग्यहीन