पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१०५

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श्रीभक्तमाल सटीक । मुनि ने उलटे ऐसा समझा कि “सवरी ही के स्पर्श के दोष से यह जल बिगड़ गया है।" (४४ ) टीका । कवित्त 1 ( ७९९) लावै बन बेरे, लागी राम को भवसेर भल, चाखै ॐ धरिराखै फिर, मीठे उन जोग हैं। मारग में जाइ रहै लोचन विचाइ, कमँ प्रावै रघुराइ, हग पा निज भोग हैं। ऐसे ही बहुत दिन बीते मग जोहत ही, श्राइ गए औचक सो, मिटे सब सोग हैं । ऐपै तनु नूनताई आई सुधि, विपि जाई, पूछे आप "सवरी कहाँ ?", ठाढ़े सब लोग हैं ॥३५॥ (५६४) वात्तिक तिलक । श्रीसवरीजी के मन में श्रीरामजी की अति अवसेर थी अर्थात् प्रभु के आने के सोच सन्देह में मग्न हो रही थीं, सो वन के बरे श्रादिक फल लाकर चखती थीं और मीठे प्रभु के योग्य जानकर रख छोड़ती थीं। प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा में अपनी अांखें विबाए रहती थीं और अति उत्कण्ठा से ऐसा विचारा करती थीं कि “कब वह दिन आएगा? कि जिस दिन श्रीरघुनन्दनलालजी आवेंगे और उनके दर्शनरूपी सुधा को मेरे नेत्र चखेंगे।" प्रिय पाठक ! श्रीसवरीजी का प्रेम कथ अगाध है। "गीतावली" में गोस्वामी श्री ६ तुलसीदासजी ने भी कुछ गाया है। “छन भवन, इन बाहर बिलोकति पंथ," इत्यादि। __ इसी प्रकार मार्ग जोहते २ बहुत दिन व्यतीत हुए । अवचक ही एक दिन लालजी (प्रभु) आयही तो पहुँचे, सुनके सब शोक सन्देह जाते रहे, पर अपने शरीर की नीचता की सुधि श्रा गई, और प्रेम की विचित्र विकलता से, आगे लेने को तो न बढ़ीं, वरंच छुप गई। प्रभु प्राके, वनवासी लोगों से पूछने लगे कि “वह सरस भक्तिवती सवरी कहां रहती है ?" इसका अर्थ कोई एक महात्मा ऐसा बताते हैं कि चलने पर जिस वृक्ष के फल मीठे पाती थी उसी वृक्ष के फल प्रभु के योम्य जान तोड़के रख छोड़ती थी॥