पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१०६

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८७ -entertain Hing- i n - Hi+marnaduInt भक्तिसुधास्वाद तिलक । (४५) टीका । कवित्त । (७९८) पछि पछि आए तहां, स्योरी को अस्थान जहाँ, कहां वह भागवती ? देखौं दृग प्यासे हैं । भाइ गई आश्रम में, जानिक पधारे श्राप, दूर ही ते साष्टाङ्ग करी चष भासे हैं । खकि उठाइ लई, विथा तनु दूरि गई, नई नीर भरी नैन, परे प्रेम पासे हैं । चैठे, सुख पाइ फल खाइ के सराहे, वेइ को “कहा कहाँ मेरे मग दूख नासे हैं।" ३६ ॥ (५६३) ___ वात्तिक तिलक। इस प्रकार पूरते २ जहां श्रीसवरीजी की कुटी थी तहां ही आके यह बात पूछी कि "हमारी वह परम भागवती सबरी कहाँ है ? हम उस को नयन भर देखा चाहते हैं, हमारे नेत्र उसके दर्शनरूपी जल के प्यासे हो रहे हैं।"प्रीतिपगे श्रीमुख वचनों को सुनके उनको अपनी नीचता का शोच मिट गया और यह देखा कि पाश्रम में ही दोनों भाई कृपा करके आ खड़े हैं, तब सम्मुख प्राके जहां से आपके दर्शन पाए वहीं से प्रेम पूरित साष्टाङ्ग प्रणाम किया। प्रभु ललक के आए और श्रीकर- कमलों से आपने श्रीसवरीजी को उठा लिया। श्रीकरकंज के स्पर्श ही से वियोग की सब व्यथा जाती रही और नेत्रों से नवल प्रेममय जल की झड़ी लग गई । क्योंकि इस समय इनके पौ बारह सरीखे प्रेम के पासे अनुकूल पड़ गए अथवा श्रीसवरीजी के नयन श्रीराम प्रेमपाश में बंध गए। __चरण धोके दोनों भाइयों को अनुराग रंजित आसन पर बैठाय फूलमाला पहिराय फलों को नवीन २ दानाओं में करके आगे रक्खा। प्रभु उन फलोंको खाते हुए बारम्बार उनके स्वाद की प्रशंसा, और शिवजी अादि उसके भाग्य की तथा प्रभु की भक्तवत्सलता की सराहना, करने लगे। और वाले कि क्या कहूँ आज तुमने मेरे मार्ग भर के परिश्रम दुःखों को मिटाके परम सुख दिया ॥. (४६) टीका । कवित्त । (७९७) ___ करत हैं सोच सब ऋषि बैठे आश्रम में, जल को बिगार ! सो सुधार कैसे कीजिये । श्रावत सुने हैं वन पथ रघुनाथ कहूँ, आवे जब, कह