पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१०७

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८८ +40MM A MIndependentatuA श्रीभक्तमाल सटीक। "याको भेद कहि दीजिये॥” इतने ही माँझ सुनी “सबरी के विराजे आन" गयो अभिमान ! चलो पग गहि लीजिये । प्राय, खुनसाय, कही "नीर को उपाय कहाँ" "गहो पग भीलिनी के छुए स्वच्छ भीजिये ॥ ३७॥” (५६२) वात्तिक तिलक। उधर ऋषि लोग अपने आश्रमों में बैठे सोच रहे थे कि यह जल जो बिगड़ गया है सो इसकी शुद्धता किस प्रकार से की जावे। इतने में कोई बोल उठे कि सुनते हैं इस बन-मार्ग से कहीं श्रीरघुनाथजी चले आते हैं, सो जब आवें तप इसका हेतु तथा शुद्धि का उपाय श्रापही से पूछ लिया जायगा। ये बातें हो ही रही थीं कि उसी क्षण मुनियों ने सुना कि श्राप आ ही गए, सवरी की कुटी में विराज रहे हैं। यह सुनते ही सभों के अभिमान जाते रहे और वे लोग बोले कि चलो उनके चरणों में दण्डवत् प्रणाम करें। खुनसाए हुए आप और प्रभु से कहा कि हमारे स्नान पान का जल विगड़ गया है इसके सुधरने का यत्न बता दीजिये। ___ इसके उत्तर में प्रभु ने कहा कि आप लोगों ने परम भागवती सवरी का अनादर किया इसी भक्तापराध से जल की यह दुर्दशा हो रही है। अतएव इसी के चरणों को गहिये और “सादर इन्हें ले जाके इनका चरण स्पर्श कराइये तो जल निःसन्देहे निर्मल हो जावेगा, आप लोग सुख से स्नान पान कीजियेगा ।" __क्या करें उनने ऐसा ही किया, और जल परमनिर्मल और स्वाद सुगन्धियुक्त हो गया। प्रभु ने जब वहाँ से चलना चाहा, श्रीसवरीजी ने अपना पाण न्यवछावर कर दिया और परमधाम को चली गई। धन्य, धन्य ! अहो! भीति परमेश्वरी परमाश्चर्य ! श्रीसवरी के प्रेम की प्रशंसा करें कि श्रीप्रभु की प्रेमपालकता की ? दोनों ही की बलिहारी । देखिये तो श्रीसवरीजी ने केवल वन के फल ही खिलाने में प्रभु में अनुराग, उसमे शतसहस्रगुण अधिक किया कि जो प्रेम माता सुत को खिलाने में करती