पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/११४

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MAnan + ला--0--14taran - india- भक्तिसुधास्वाद तिलक । चौपाई। "श्रापत ताड़त परुष कहन्ता । पूजिय विप्र कहहिं अस सन्ता॥ दो० मन क्रम वचन, कपट तजि, जो कर भूसुर-सेव । विष्णु समेत विरंचि शिव, वश ताके सब देव ॥" (५२) टीका । कवित्त । (७९१) । एक नृपसुता सुनि अम्बरीष भक्ति भाव, भयो हिय भाव ऐसो. वर कर लीजिये । पिता सों निशंक ढके कही “पति कियो मैं ही, विनय मानि मेरी, बेगि चीठी लिखि दीजिये ।।" पाती लेके चल्यो विप्र. विष वही पुरी गयो नयो चाव जान्यो ऐप कैसे तिया धीजिये । कहो तुम जाय, "रानी बैठी सत भाय, मोको बोल्यो न सुहाय प्रभु सेवा माम भीजिये" ॥ ४३ ॥ (५८६) वात्तिक तिलक । श्रीअम्बरीषजी की एक श्राख्यायिका कहकर अव राज सुता सम्बन्धी भक्ति उनकी वर्णन करते हैं। एक राजकन्या को श्रीअम्बरीष जी की भक्ति और प्रेम भाव सुनके बड़ा मानन्द हुमा, उसके हृदय में यह भाव उत्पन्न हुआ कि “ऐसा पति कर लेना चाहिये, जो भाग्य- शालिनी ऐसे भक्तराज की दासी हो वह धन्य है" या विचार कर निशंक हो, उसने अपने पिता से कहा कि मैने श्री ६ अम्बरीषजी को पति मान लिया, “बरी ताहि न तु रहाँ कुमारी", "आप मेरी विनय मान के राजा को एक पत्रिका लिख दीजिए ।" कन्या के पिता ने पत्र लिख के एक ब्राह्मण के हाथ दिया। ब्राह्मण ने, वह पत्र ले, बड़ी शीघ्रता से उस पुरी में जा महाराज (श्रीधम्बरीषजी) को दिया । महाराज ने पत्र पढ़ के कहा कि “उसका नवीन अभिलाष मैंने भलीभाँति जाना" परन्तु मैं स्त्री को कैसे ग्रहण करूँ ? क्योंकि मेरे तो सैकड़ों रानियाँ घर में बैठी हैं और मुझको उनसे बात तक करनी नहीं भाती ।। चौपाई। “उमा ! राम सुभाव जिन जाना । तिनहिं भजन तजि भाव न पाना॥" "मेरा मन तो केवल भगवत सेवा ही में रंग गया है। यह बात श्राप जाके राजकन्या से कह दीजिये।"