पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भक्तिसुधास्वाद तिलक । १०७ - intang-4- 4 mitra आनन्द के सागर में इनको मग्न कर दिया, और आप भी इनके अनुराग में मग्न हो गये। (६५) टीका । कवित्त । (७७८) चिउड़ा छिपाए कांख, पूछ कहा ल्याए मोको ? अति सकुचाए, भूमि तक, दृग भीजे हैं। बैंचि लई गांठि, मूठि एक मुख मांझ दई दूसरी हूँ लेत स्वाद पाइ आपु रीझे हैं ।। गह्यो कर रानी, "मुखसानी प्यारी वस्तु यह, पावो वांटि" मानो श्रीसुदामा प्रेम धीजे हैं। श्याम जू विचारि दीनी सम्पति अपार, विदा भए, पै न जानी सार विछुरनि चीजे हैं ।। ५६ ॥ ( ५७३) वात्तिक तिलक। आपने पूछा कि “सखे ! मेरे लिये क्या लाये हो?" यह सुन श्रीसुदामाजी संकोच के वश होके पृथ्वी की ओर देखने लगे और इनकी मांखों में धांसू भर आए। श्रीश्यामसुन्दरजी ने देखा कि फटे कपड़े में एकछोटी सी गठरी बांधे हुए ये कांख में दवाए छुपाए हुए हैं, देखते ही उसको खींच के खोल देखा कि उसमें चिउड़े हैं। आप उसमें से एक मुट्ठी लेके शीघ्रतासे श्रीमुख में डालके चवाने, पुनः दूसरी मुट्ठी भी भरके पाने लगे और मित्र की लाई वस्तु जान के उसमें अर्व स्वाद पा अत्यन्त रीझ के आपने तीसरी मुट्ठी भी भर ली, मानों उस चिउड़े को श्रीसुदामाजी के प्रेम का रूप ही मान के ग्रहण करते हैं। श्रीरुक्मिणीजी महारानी ने आपका करकंज पकड़ के कहा कि “यह वस्तु प्रेमसुख से सनी हुई आप अकेले ही सब न पा लीजिये, किंतु हम सबों का भाग भी बांट दीजिये।" तर मापने मुट्ठी छोड़ दी और उसको श्रीमती रुक्मिणीजी को दे दिया। सत्यसंकल्प श्रीकृष्ण भगवान ने उस चिउड़े को ग्रहण करके विचार के, अपने मन ही से इनको अपार सम्पति दे दी, प्रत्यक्ष में कुछ न • दिया, परन्तु इनने इस भेद को न जाना ।। श्रीसुदामाजी प्रिय मित्र का परम सत्कार पाते. हुए (बहुत आग्रह -- ---