पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१२७

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4140+ tamPNAPHeartmdverPA- 4- 4 - m u ndranamangoli श्रीभक्तमाल सटीक । करने से) सात दिन रहकर, विदा हुए। श्रीमित्रवर के वियोग से अति- शय दुःख पाते अपने गृह को लौट चले। __ चौपाई। मिलत एक दारुण दुखदेहीं । विछुरत एक प्राण हरिलहीं॥ (६६) टीका । कवित्त । (७७७). __ आए निज ग्राम वह, अति अभिराम भयो, नयो पुर दारका सों, देखि मति गई है। तिया रंग भीनी संग सतनि सहेली लीनी, कीनी मनुहारि यों प्रतीति उर भई है। वह हरि ध्यानरूप माधुरी को पान, तासौं राबै निज प्रान, जाके प्रीति रीति नई है। भोग की न चाह ऐसे तनु निरवाह करें, रै सोई चाल सुख जाल रसमयी है ॥५७॥ (५७२) वात्तिक तिलक । जब अपने गांव (सुदामापुर) में भा पहुँचे तो देखते क्या हैं कि वह ग्राम अतिशय रमणीय होगया है यहां तक कि सब नवीन रचना युक्त मानों साक्षात् द्वारका ही है। ऐसा देखते ही श्रीसुदामाजी की भति तो भ्रम में डूब गई। परन्तु इनकी धर्मपत्नी जी अपनी अटारी पर से इनको देखके परम अनुराग में भरी हुई आरती कलश चवर आदिक सामग्रियों सहित प्रभु की दी हुईसैकड़ों सहचरियों के साथ-साथ,सामने आके, भारती कर, प्रभु, की कृपा से इन सब विभवों की प्राप्ति परम प्रिय वचनों से समझाके विश्वास कराके अपने कंचन भवन में ले गई॥ यद्यपि श्रीसुदामाजी ने सब प्रकार के विभव भोग पाए तथापि उसमें आसक्त न हुए । श्यामसुन्दर सखावरजी के उसी रूप अनूप का ध्यान और सुधा माधुरी का पान मन से करते, नवीन प्रीति रीति में पगे हुए, अपने प्राणों को रखते थे, इसी प्रकार से अपने शरीर का निर्वाह करते, विषय भोगों से विरक्त रहके भक्तिप्रेमानन्दमयी रसभरा चाल से जीवनावधि पर्यन्त चलते रहे। चौपाई। अमित बोध अनीह, मितभोगी । सत्यसार, कवि, कोविद, योगी॥