पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

immameramatarrerana muFAmr uMANOHHHH-H भक्तिसुधास्वाद तिलका। दो० “गुणागार संसार दुख, रहित विगत सन्देह । तजि प्रभु चरणसरोज प्रिय, तिनके देह न गेह ॥" श्लो. “युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वमावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥" वैराग्य की जय ! अनुराग की जय !! प्रिय पाठक ! कहां श्रीसुदामाजी का विमल चरित्र, और कहां इस दीन की असमर्थ लेखनी ।। (२७) श्रीचन्द्रहासजी। (६७) टीका ! कवित्त । (७७६) इतो नृप एक, ताके सुत "चन्द्रहास” भयो, परी थीं विपति, धाई ल्याई और पुरहै । राजा को दीवान, ताके रही घर आन, बाल आपने समान संग खेले रसखरहै । भयो ब्रह्मभोज, कोई ऐसोई संयोग बन्यो, श्राए वै कुमार, जहां विप्रन को सुरहै । बोलि उठे सबै "तेरी सुताको जुपति यहै, हुवा चाहे जानी, सुनि गयो लाजघुरहै ।। ५८ । (५७१) वात्तिक तिचक। केरलदेश का एक मेधावी नाम राजा था, उसके पुत्र “चन्द्रहास" हुए। उनके पिता को दूसरे राजा ने युद्ध में मार डाला, तब माता भी सती हो गई, इस विपचि से एक दासी उनको लेके, कुन्तलपुर के राजा के प्रधानमन्त्री “धृष्टबुद्धि” के घर में रहने, और निज पुत्र करके इनको पालने लगी। जव चन्द्रहासजी पांच वर्ष के हुए, वह धाई भी भर गई। क्या बात है ! जय हरि ॥ एक दिन इनके भाग्यवश दयासिन्धु श्रीनारदजी कृपाकर आके एकान्त में मिले, और एक श्रीशालग्रामजी की छोटीसी मूर्ति देके समझा गए कि "इनको धोके पी लिया करो, और दिखाके खायाकरो," फिर उस मूर्ति को मुख में ही रखने की युक्ति भी बताके श्रीभगवन्नाम का उपदेश कर गए। ये वैसा ही करते और समान वयसवाले बालकों के साथ २ भगवत सम्बन्धी ( रसडर) खेल खेला करते थे। एक दिन धृष्टबुद्धि के घर ब्राह्मणों का भोजन था । विधिसंयोगवश