पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१३०

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-11-ANIRAHANANJungment +MARAHMAN MFipmrriMAGHMAMHI भक्तिसुधास्वाद तिलक । (६९) टीका । कवित्त (७७४) मानि लीन्हो बोल वे, कपोल मध्य गोल एक "गंडकी को सुत" कादि सेवा नीकी कीनी है। भयो तदाकार, यो निहार सुख भार भरि. नैननि की कोरही सों आज्ञा वध दीनी है ॥ गिरे मुरझाइ, दया प्राइ, कछु भाय भरे, ढरे प्रभु भोर, मति श्रानंद सों भीनी है । हुती छठी भांगुरी, सो काटि लाई, दूषन हो, भूषन ही भयो, जाइ कही सांचु चीनी (चीन्ही) है॥ ६० ।। (५६६) वात्तिक तिलक । - दुष्टों ने इनकी वार्ता मान ली। तदनन्तर श्रीचन्द्रहासजी अपने गाल में से श्रीनारदजी की दी हुई श्रीशालग्रामजी की मूर्ति को निकालके तड़ाग के जल एवं वन के पुष्पों से उनकी सप्रेम पूजन भले प्रकार से कर, अपने करकमल पर विराजमान करके, एकाग्रचित्त हो देखने लगे, तब प्रभु ने उसी मूर्ति में ऐसा सञ्चिदानन्द सूक्ष्म रूप का दर्शन दिया कि जिससे भारी प्रेमानन्द में ये मग्न होके देहाभिमान भूलके तन्मय हो गए । जय, जय ॥ उसी क्षण अपनी आंखों की कोर से अपनेवध की आज्ञा दे दी।ज्योंही वधिकों ने मार डालने का विचार किया त्याही प्रभुप्रेरित ऐसी दया बधिकों के हृदय में आई कि मूञ्छित होके वे सब भूमि पर गिर पड़े। फिर सावधान होके उठे तो उनके मन में भगवत की भक्ति का भाव भी कुछ आगया। अपने पापों से ग्लानि कर, प्रभु के सम्मुख हो, प्रेमानन्द को प्राप्त हुए । प्रभु की जय ॥ श्रीचन्द्रहासजी के एक पग में छः अगुलियाँ थीं कि जिसका होना सामुद्रिक में दूषण बताया है। उसी छठी अंगुली को काट, उन्होंने इनको । छोड़ दिया मानों वह अधिक अँगुलीरूप दूषण (अपलक्षण) निकल । गया और अब आप भवभूषणरूप सुलक्षण रह गए ॥ . । जाके, दुष्ट धृष्टबुद्धि को वही अंगुली सहदानी (चिन्हासी) दिखा, कहदिया कि "हमने उसको मार डाला।" उसने अंगुली पहिचानी, । और वह बात सच मानी। "कौन की त्रास करै ? तुलसी, जोपै राखिहे राम, तो मारिहै कोरे?"