पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१३१

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११२ ११२ ..... श्रीभक्तमाल सटीक । चौपाई। "गरल सुधा, रिपु करै मिताई । गोपद सिन्धु, अनल शितलाई ॥ गरुमसुमेरु रेणुसम ताही। राम कृपाकरि चितवहिं जाही।" (७०) टीका । कवित्त । (७७३) वहे देश भूमि मैं रहत बघु भूप और, और सुख सब, एक सुत चाह भारी है। निकस्यो विपिन, आनि, देखि याहि, मोद मानि, कीन्ही खग बांह, घिरी मृगी पांति सारी है । दौरिक, निशंक लियो, पाइ निधि रंक जियो, कियो मनभायो, सो बधायो, श्री हु वारी है। कोऊ दिन बीते, नृप भए चित चीते, दियो राजको तिलक, भाव भक्ति विसतारी है।। ६१ ॥ (५६८) वात्तिक तिलक ! उसी कुन्तलपुर के राजा के राज्य ही में एक छोटा सा राजा रहता था वह नी धनादि सब प्रकार के सुखों से तो सुखी था, परन्तु उसके पुत्र न था, सो उसके पुत्र की अतिशय अभिलाषा थी। भावीवश वह राजा उसी बन के मार्ग से जा निकला, देखता क्या है कि श्रीचन्द्रहासजी बैठे हुए हैं, और श्रीसर्वान्तर्यामी प्रभु का प्रिय जानके, इनके सुन्दर रूप को देखती हुई, हरिनियों के समूह इनको घेरे हैं, और एक बड़ा पक्षी सीस पर छाया किये हुए है कि जिसकी छाया माथे पर होना महाराज्य प्रालि का सूचक है "उसे कृपा करते नहीं लगती बार ॥" ___ यह देख, अत्यन्त आनन्दयुक्त हो, इस प्रकार से दौड़के राजा ने अपने गोद में ले लिया कि जैसे दरिद्री महाधन को पाके पाणसमान ग्रहण करता है, घर में लाके, जैसा निज पुत्र होने से मनमाना मंगल लोग करते हैं वैसा ही आनन्द बधावा नाच गान कर कराके बहुतसा द्रव्य लुटाया, और लालन पालन करने लगा। कुछ दिन बीतने पर श्रीचन्द्रहासजी की योग्यता देख अपने चित्त में विचार करके उस राजा ने इनको राज्यतिलक कर दिया । ' ' दो० "मसकहि करहि विरंचि प्रभु, अजहि मसक ते हीन। अस विचारि तजि संशय, रामहिं भजहिं प्रवीन ॥" :