पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१३३

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'श्रीभक्तमाल सटीका देखि रीमी है । पाग मधि पाती अविमाती झुकि बैंचि लई,पांची खोलि, लिख्यो विष दैन पिता खीझी है ॥ “विषया” सुनाम अभिराम, हगअंजन सों विषया वनाइ, मनभाइ, रसभीजी है। आइ. मिली भालिन में लालन को ध्यान हिये, पिये मद मानो, गृह आइ तब धीजी है ॥६३॥(५६६) वात्तिक तिलक। श्रीहरि इच्छा से उसी मन्त्री की लड़की "विषया" नामा अपनी उस बाटिका में अपनी सखियों सहित आई अचानक उसकी दृष्टि चन्द्र- हासजी पर पड़ी, और साथ ही अति अनुरल और आसक्त हो गई। दूसरी ओर जा, वहां से अपनी सहचरियों से अलग हो, वह चक्कर लगाके फिर वहीं पहुँची जहां श्रीचन्द्रहासजी सोए थे, "जिनसे अटकत हैं ये नैना। खटकत है उर सो दिन रैना॥" इनको देखही रही थी कि इतने में एक पत्रिका दिखाई दी जिसको उस सुन्दरी ने निकालके पढ़ा, उस पत्र को अपने भाई मदन के नाम अपने पिता धृष्टबुद्धि का लिखा पाया, और उसका आशय यह था कि "इस पत्रिका ले जानेवाले को शीघ्र ही विष दे देना, विलम्ब करने से मैं तुम पर क्रोध करूँगा। यह पढ़ उस बालिका को अपने पिता पर क्रोध, तथा प्रीतिवश इस प्रिय मूर्ति पर दया आई,श्रीहरिकृपा से उसी क्षण उसको ऐसी सूझी कि उसने बड़ी ही फुरती के साथ अपनी आँख के काजल से विष शब्द के अन्त में 'या' अक्षर बनादिया, जिससे "विष" अब "विषया" होगया। श्रीभग- वत कृपा का मनन करती हुई, प्रेमरस में पगी, वहां से चटपट चली और अपनी सहचरियों में आ मिली। जैसे मद से माती हो इस भांति वह प्रेमासक्त हो अपने मनोरथ की सफलता के लिये घर आई । और संतुष्ट हो प्यारे के ध्यान में मग्न, परमात्मा से प्रार्थना करने लगी ॥ “जगदम्बे मोरमनोरथ जानसि नीके (७३) टीका । कवित्त । (७७०) उठ्यो चन्द्रहास, जिहि पास लिख्यो लायो, जायो देखि मन भायो गाढ़े गरे सो लगायो है । देई कर पाती, बात लिखी मों सुहाती, बोलि