पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१३५

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AMwner-4-PRAMNANGM A MALAMI+ श्रीभक्तमाल सटीक । __ वध करनेवालों को बुलाया और चुपचाप आना दी कि "कल भोरे जिसको देवी मन्दिर में पाना, विना विचार किये ही उसका वध कर देना", और इधर निरपराधी चन्द्रहासजी से कहा कि “देवी मेरी कुलपूज्य है, तुम पात ही उठके जाके उसकी पूजा कर श्रामो, विवाह के मनन्तर उसकी पूजा हमारे कुल की रीति चली माती है।" सठने अपनासा उपाय, गढ़ावा तो परन्तु उसने यह न जाना कि- दो. “जो भावी सो होइ है, झूठी मन की दौर। मेरे मन कछु भोर है, करता के कछु भौर ॥२॥ पर अनहित को सोचियो, परम अमंगल मूल । कांट जो बोवे और को, ताही कोतिरशूल ॥२॥" (७५ ) टीका । कवित्त । (७६८) चलाई करन पूजा, देशपति राजा कही, मेरे सुत नाही, राज वाही को ले दीजिये।"सचिव सुवन सों जु कयो “तुम खाचो जावो,पावो नहिं फेरि समय, अव काम कीजिये ॥” दौखो सुख पाइ चाह मग ही में लिया जाइ, दियो सो पठाइ, नृप रंग माहि भीजिये। देवी अप- मान ते न डरो, सनमान करौं, जात मारि डाखा, यासों भाष्यो भूप "लीजिये"॥६६॥(५६३) वात्तिक तिलक। प्रभात होते स्नान और श्रीशालग्रामजी की पूजा से अवकाश पा श्रीचन्द्रहासजी,श्रीदेवीजी महारानी कोपजने चखे। उसी समय श्रीसीता- राम कृपा से देशाधिपति (कुन्तलपुर के महाराज) के मन में पाया कि "मेरे पुत्र है ही नहीं, तो अब यही उत्तम है कि सुयोग्य चन्द्रहास को ही मैं राज्यतिलक कर दूँ, हरि भनँ।" ऐसा विचार कर मन्त्री के पुत्र मदन को बुलाकर हरिकृपा से यों कहा कि "मेरे मन में यह बात आई है, सो तुम अभी अभी दौड़े जाव, अपने बहनाई चन्द्रहास को लाओ" इसी समय काम कर लो, नहीं तो विलम्ब करने से फिर न होगा, हरिइच्छा ऐसी ही है, पीछे पछताओगे।" ("मन ! पछते है अवसर बीते)