पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१४३

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@ re + ++ + + + श्रीभक्तमाल सटीक । मार्ग में दयासिन्धु देवर्षि श्रीनारदजी मिले । “जागिदया कोमल चित सन्ता" श्रीदेवर्षिजी ने अतिशय कृपासे "दादशाक्षर मन्त्र का उपदेश किया, श्रीध्रुवजी मथुगजी में श्रीयमुनाजी के तट पर आकर-"बादश अक्षरमंत्र जपेउ सहित अनुराग ॥" हरि ने साक्षात् प्रकट होकर भक्तिवर दिया और कृपा करके, अपना शंख श्रीध्रुवजी के कपोल में स्पर्श कर दिया जिससे उसी अवस्था में आपने भगवत की स्तुति की- __ "जै अशरन.शरन, राम । दशरथकिशोर । जनकनंदिनी मुख विधूवर चकोर ॥ अवधनाथ, श्रीनाथ, मम प्राणनाथ। लखन मारती नाथ, शर चाप हाथ ॥ प्रभो ! जानकीप्राणवल्लम हरी । कृपासिंधु, भगवंत, रावण भी ।। मुनिजन अंगम कृत सखाभालुकोश । निजेच्छाविहारी, रमा- स्वामिनीश ॥ विबुध वृन्द सुखदाइ, दूषण दमन । महादेव गोदेव महिदुस- शमन॥अलख, सच्चिदानन्द,छवि मूर्तिमानापतितपावन अव्यक्त करुणा- निधान । न गुन में, न निर्गुण, न तू रत्न में।न है ज्ञान में तू न है यत्न में ।। पै सब रंग में, और परतीत में । चमकता है तू प्रेम में पीत में॥ तुझी में मही, स्वर्ग सातो पताल नहीं शून्य तुझसे कोई देशकाल । तुही सबमें है, श्री तुझी में हैं सब । तुही एकही था, न था कुछ भी जब ॥ सकल ही पदारथ भरे हैं यहीं। पै तुझ बिन तो कुछ भी है अपना नहीं। भटकते बहुत दूर हुँदै अजान । तुम्हें आपमें ही हैं पाते सुजान ।। मैं दिन रात देवू हूँ लीला तेरी । है चक्कर में, हे प्यारे । बुद्धी मेरी ॥ अगम श्री अकथनीय महिमा तरी । है अतिक्षुद्र बुधि, मन्दतर मति मेरी ॥ न देखी किसून "गिग" थाह लेति । कहा "शेष"ओं "वेदों", "नेति नेति॥" बड़े से बड़े भी सके करन जो। प्रभु स्तुति तेरी मुझसे किस भांति हो । तेरे पद्म पद छुट नहीं और ठौर । न तव प्रेम तजि,जग में कुछ सार और ॥ मैं कलिमलग्रसित, अतिविकल पाहि पाहि । तरी माया गाढ़ी प्रबल, त्राहि त्राहि ॥ अधिक इससे क्या कह सके रामहित' । अमित है, अमित है, अमित है, अमित ॥ कृपा करके दो प्रेम अपना, विभो । “सियाराम सिय- राम" जपना, प्रभो!" (* पण्डित श्रीरामहितोपाध्यायजी)