पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१४४

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wnload भक्तिसुधास्वाद तिलक । १२५ प्रभु ने कहा कि “छत्तीस सहस्र वर्ष इस पृथ्वी का राज्य करके, तब अचल अनुपम लोक का राज्य करोगे, अब तुम घर जाव।" आप घर को चलो॥ श्रीनारदजी की आज्ञा से महाराज उत्तानपादजी ने श्रागे आके इनका आदरसत्कार कर, घर ला, इनको राज्य दे दिया, स्वयं और खी भगवद्भजन करने के लिये बन को गए। भूमण्डल के राज्य के अनन्तर, श्रीध्रुवजी अपनी दोनों माताओं और पिता के समेत "ध्रुवलोक" में जा विराजमान हैं, महाप्रलय के पीछे परमपद को जायेंगे। (३२) श्रीअर्जुनजी।। श्रीअर्जुनजी श्रीयादवेन्द्रजी प्रभु के फुफेरे भाई थे, भगवत में सखा भाव से प्रेम रखते थे। सुहृद होने के उपरान्त मित्रता भी आपस में ऐसी थी कि करुणाकर प्रभु आपके सारथी का काम भी किया करते थे। मित्रता की अधिकता से श्रीअर्जुनजी निष्कपट भी ऐसे हो गए थे कि जब आप श्रीयदुपति महाराज की बहिन सुभद्राजी की सुन्दरता पर आसक्त हो गए- दो० व्याकुलता अरु व्यग्रता, व्याप्यो रगरग श्राय । चंचल चित अतिछटपटी, घर आंगन न सुहाय ॥ ३॥ गदगद स्वर रोमांच अरु, नैनन नीर बहंत । प्रेम मग्नउन्मत्त ज्यों, अन्तः पीर सहंत ॥ २॥ तो अपनी पूरी विकलता श्रीकृष्ण भगवान से निःशंक होके कह सुनाई। दो० “परदा कौन सुमिः सन, हित सन कौन दुराव। हियकी सब परगट करे, तुरतहि भाव कुभाव ।।" चौपाई। "जिन्हके असमति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई ॥ राम सदा सेवक रुचि राखी । वेद पुराण सन्त सब साखी॥ जेहि जन पर प्रमता अरु छोहू । तेहि करुणाकर कीन्ह न कोहू ।।"