पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१४५

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श्रीभक्तमाल सटीक श्रीकृष्णचन्द्रजी ने लौकिक निन्दा उपहास के भयशंका को धरने पर घर भक्त रहस्यानुकूल ऐमा गुम मन्त्र बताया कि उसके अनुसार श्रीअर्जुनजी अपने मनोरथ को प्राप्त ही हो गए। मित्रवत्सलता की जय ॥ चापाई। "जाकर जापर सत्य सनेह ! सो नेहि मिले न कछु सन्देहू ॥" एक र प्रभु अपने मता अर्जुनजी के पास, खटके वहां चले गए कि जहां आप श्रीमुभद्राजी के माथ विराजने थे । “हो मुख्य जो नो ऐसा, हो प्रीति जो तो ऐसी । विश्वास हो तो ऐमा, पग्नीनि हो नो ऐसी ॥" भक्त की प्रशंसा की जाये ? कि भक्तवत्सलजी की ? कि प्रेमा- भक्ति महारानी की ? एक समय मंगलमूर्ति श्रीमारुतिनी गन्धमादन निजस्थल से श्रीसीतारामजी के दर्शनार्थ दिव्यसाकेतलोक आए, जहाँ पर श्रीसनकादि ऋषिवृन्द और श्रुतियां स्तुति कर रही हैं किञ्चित् काल प्रभु सेवाकर श्रीगमदूतजी ने गन्धमादन जाना चाहा, तो भक्तवत्सल श्रीमीतानाथजी ने कहा कि "जाव, परन्तु हमारे अवतारान्तर के भक्त पाण्डवों की रक्षा कौरवों से अवश्य ही करना।" इम प्रभुवचनामृत को अङ्गीकार और दण्डवत् कर श्रीपचनात्मजजी आकाशमार्ग होकर चले, जब "द्वैतवन के समीप पहुँचे, नव अर्जुनादि- पाण्डव और श्रीकृष्णचन्द्र की वार्ता मुनी । सो वह वार्ता यह है-- अर्जुनादि ने कहा कि "कोरवरूपी दुःख से कैसे बचेंगे ?" यह मुन, श्रीकृष्ण चन्द्रजी ने कहा कि "देखो, ये पवनपुत्र हनुमान श्रीसाकेत- विहारी के दूत, आकाशमार्ग होके जा रहे हैं, सो ये ही तुम्हारी रक्षा करेंगे। ___ इतना सुनते ही वृत्त जानने की वाञ्छा से श्रीमारुनिजी श्रीकृष्ण- चंद्रजी के समीप पहुँचे, तब आपने अपने को श्रीसाकेत विहारीजी का अवतारं ज्ञापन करने के लिये, श्रीरामरूप हो दर्शन दिया, और पाण्डवों को श्रीहनुमतशरण में लगा दिया । श्रीमंजनीनन्दनजी ने पाण्डवों को, निज भनूप भक्त और दाम