पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१४८

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१२९ minR-4-11ng-IMAdmint ना भक्तिसुधास्वाद तिलक .....................१२९ भात की टेरे को सुनते ही मानिहरण चक्रधर हरि गरुड़ को छोड़के वैकुण्ठ से दौड़ उसी निमिष श्रीगजेन्द्रजी के पास पहुँच प्राह को चक्र से मार श्रीगजेन्द्रजी को छुड़ा लिया। शीघ्रना देखिये कि “पानी में प्रगटयो किधौं वानी से गयंद के॥" भगवत् ने श्रीगजेन्द्रजी को तो परमपद दिया ही, किन्तु प्राह ने भी मुक्ति पाई॥ श्रीमद्भागवत श्रादिक में श्रीगजेन्द्रकृत स्तुति पढ़ने ही योग्य है । किसने प्रभु को पुकारा और अपने कष्ट से छुटकारा न पाया ?l (३६) श्रीकुन्तीजी (७९) टीका । कवित्त । (७६४) कुन्तीकस्तूति ऐसी करे कौन भून पाणी, मांगति विपति, जासों भाजै सब जन हैं । देख्यो मुख चाडो लाल ! देखे विनु हियेशाल, इजिये कृपाल, नहीं दीजै बाम बन हैं ॥ देखि बिकलाई प्रभु आंखि भरि आई, फेरि घर ही को लाई,कृष्ण प्राण तन धन हैं । श्रवण वियोग सुनि तनक न रह्यो गयो, भयो बपु न्यारो हो । यही सांचोपन हैं ॥७०॥ (५५.६) वात्तिक तिलक। श्रीयादवेन्द्र महाराज श्रीकुन्तीजी के भतीजा थे, परन्तु आप प्रभु में ब्रह्मसच्चिदानन्द का भाव रखती थीं, उनकी अन्तःकरणदृष्टि के सामने मोह माया का धुंधलापन नहीं था, सदा भगवत् की मूर्ति सम्मुख विराजमान ही रहती थी। श्रीकुन्तीजी की प्रशंसा कर सके ऐसा कौन है ? जिस विपत्ति से सब लोग भागते हैं, सोई विपत्ति आपने प्रभु से माँगी कि "हे लाल जी। सुख से वह दुःख ही मुझे भला है कि जिस दुःख मे तुम सदैव दर्शन दिया करते हो, मैं सदा तुम्हारा मुखारविंद देखती रहा चाहती हूँ, जिसके अवलोकन विना मेरे हृदय में बड़ाशूल होता है, मुझपर कृपा करके सदा मेरे पास रहा करो, और नहीं तो वनवास दो, क्योंकि वनवास में सदा तुम साथ रहते थे, राज्य होने पर तुम्हारा वियोग हुश्रा चाहता है ।" जबकि श्रीयुधिष्ठिरजी को राज्य प्राप्त होने के अनंतर भगवत् द्वारका