पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१५१

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१३२ श्रीभक्तमाल सटीक । कृष्ण गीतावली। अपनेनि को अपनो विलोकि बल, सकल पास विश्वास विसारी। हाथ उठाइ अनाथनाथ सों"पाहि पाहि प्रभु पाहि।" पुकारी ॥ तुलसी परखि प्रतीति प्रीति गति भारतपाल कृपालु मुरसि । “वसन वेष” रास्ता विशेष लखि विरदावलि मूरति नरनारी ॥ १ ॥ प्रीति प्रतीति द्रुपदतनया की भली भूरि भयभभरिन भाजी । कहि पारथ सारथिहि सराहत गई बहोरि गरीवनिवाजी ॥ शिथिल सनेह मुदित मनही मन,वसन बीच विच वधू विराजी । सभा सिन्धु यदुपति जयमय जनु रमाप्रगटि त्रिभुवन भरि भ्राजी।। युग युग जग साके केशव के शमन कलेश कुसाज सुसाजी। तुलसी को न होइ सुनि कीरति कृष्णदयालु प्रगति पथ राजी ॥२॥ एक दिन जब नीच दुर्योधन ने जगप्रसिद्ध श्रीदुर्वासाऋषिनी को श्रीयुधिष्ठिरजी के पास बन में (किसी प्रकार से) भेजा तो वह महात्मा ऐसे समय पहुँचे कि जब श्रीद्रौपदीजी सबको भोजन कराके श्रीसूर्य भगवान की दी हुई टोकनी को धो धा चुकी थीं । अतः श्री युधिष्ठिर आदि बड़े शोच में पड़े कि दससहस्र चेलों समेत दुर्वासाजी को श्रव कहाँ से भोजन करावे? दुर्वासाजी ने कहा कि “जब तक तुम भोजन का ठीकठाक करो इतने में हम सब स्नानादिक नित्य क्रिया करके आते ही हैं ।।" धर्मात्मा श्रीयुधिष्ठिरजी ने विचार किया कि “अब तो शरीर परित्याग करना ही भला जान पड़ता है।" परन्तु श्रीद्रौपदीजी ने कहा कि “आप किसी प्रकार की चिन्ता मत कीजिये, क्या हमारे शोकविमोचन प्रभु कहीं गए हैं।" (८१) टीका । कवित्त । (७६२) सुन्यो भागवती को बचन भक्तिभावभखो, खो मन, श्राए श्याम, पूजे हिये काम है । आवतही कही “मोहि भूख लागी देवो कछु” महा सकुचाये मांग प्यारो "नहीं धाम है" ॥ "विश्व के भरणहार "श्रीसूर्यनारायणजी ने प्रसन्न होकर वह टोकनी दी थी। उसका यह चमत्कार था कि जब तक श्रीद्रौपदीजी भोजन कराके उसको नहीं धो डालती थी, तब तक विविधभौति की भोजनसामग्री उसमें से निकला करती थी।"