पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१५२

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+ - +I -Jun +C -in - 1- 1-1 - m 1 ent -1-1 -ge भक्तिसुधास्वाद तिलक। धरे है प्रहार, अजू, इमसों दुराके' कही वाणी अभिराम है। लग्यो शाक पत्र पात्र, जल संग पाइ गए पूरण त्रिलोकी विप्र गिनै कौन नाम है ॥७२॥ (५५७) बात्तिक तिलक । प्रेमी के शुद्धान्तःकारण की भक्तिभावभरी वाणी ("क्या श्रीकृष्ण- चन्द्र कहीं गए हैं ?") सर्वव्यापी करुणाकर ने ज्योंही सुनी, फिर क्या था? दयालुता ने सुहृद के अन्तःकरण का चित्र सामने धर ही तो दिया। भक्तवत्सलता कैसे स्थिर रहने देती? निजधाम छोड़ने और भक्त के सम्मुख पहुँचने में शीघ्रता ने विद्युत् को लज्जित कर दिया।भगवत् तथा भक्त के एकत्र होने से प्रमोद पाकर अन्तःकरण की जो दशा होती है, वह अन्तःकरण ही के समझने की वार्ता है, लेखनी की सामर्थ्य से बाहर है कि उसका किञ्चित् अंश भी प्रकाश कर सके। चौपाई। "बार बार प्रभु चहत उठावा । प्रेम मगन तेइ उठब न भावा ॥" श्रानन्दकन्द विश्वभरण प्रभु ने बड़ी आतुरता से आपसे मांगा कि "भौजी शीघ्र कुछ खिलामो, मैं बड़ा भूखा हूँ।" यह सुन, अति सकुचाय, आपने उत्तर दिया कि "प्यारे ! खाने पीने की तो कोई वस्तु घर में नहीं है।" हरि मुसक्या के बड़े ही मधुरस्वर से बोले कि "भौजी! मुझसे तुम दुराव क्यों करती हो ? तुमने तो वह बटुई (टोकनी) घर में घर रक्खी है कि जिससे चाहो तो हरिकृपा से तुम संसार भर को खिला सकती हो।" आपने कहा कि “प्यारे। मैं पाकर उस पटुई को धो धा चुकी हूँ॥" प्रभु ने टोकनी मांगी, कि "लामो देखू" श्राप उठा लाई, और प्रभु के सामने उसको रख दिया। __भगवत् ने उसमें से एकपत्ता साग का (सटाहुआ) ढूंढ़ निकाला, जिसको, श्रीद्रौपदीजी को दिखलाके, आप पागए और उसके ऊपर से थोड़ा सा जल भी पी लिया। उसी क्षण, दुर्वासाजी और उनके चेलों की कौन कहे, वरंच सारे त्रैलोक्य के प्राणी भोजन से पूर्ण होगये ॥