पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१५३

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म. NPHENERARAM + mandantra-N ++ ++ H am a nandrugelelan १३४ श्रीभक्तमाल सटीक । दुर्वासाजी, श्रीअम्बरीषजी की वार्ता स्मरण करके, डरे, और वाइरही से बाहर नदी तट से अपने चेलों समेत भागे॥ "जन को पन, राम ! न राखो कहां?" चौपाई। शील सकोचसिन्धु रघुराऊ । सुमुख, सुलोचन, सरल सुभाऊ ॥ "वह अपनी, नाथ ! कृपालुता तुम्हें याद हो कि न याद हो, ॥ वह जो कौल भक्तों से था किया, तुम्हें याद हो कि न याद हो । सुनी गज की ज्योंही वह आपदा, न विलम्ब छिन का सहा गया, वहीं दौड़े उठके पयादा पा, तुम्हें याद हो कि न याद हो ॥ १ ॥ वह जो चाहा लोगों ने द्रौपदी को कि लाज उसकी सभामें लें, वह बढ़ाया वस्त्रको तुमने आ, तुम्हें याद हो कि न याद हो॥ २॥ वह अजामिल एक जो पापी था, लिया नाम मरने में बेटे का, उसे तुमने ऊचों का पद दिया, तुम्हें याद हो कि न याद हो ॥३॥ जिन वानरों में न रूप था न तो जाति थी, न तो गुन ही था, रहे उलटे उनके ऋणी सदा, तुम्हें याद हो कि न याद हो ॥ ४ ॥ वह जो गोपी गोप थे ब्रज के सब, उन्हें इतना चाहा कि क्या कहूँ, उन्हें भाइयों कासा मानना, तुम्हें याद हो कि न याद हो ॥ ५ ॥ वह जो गीध था, गनिकाजो थी, वह जो ब्याध था, वह मलाह था, उन्हें तुमने भक्तों का पद दिया, तुम्हें याद हो कि न याद हो ॥ ६ ॥ खाना भिल्लनीके वह जूठे फल, कहीं भाजि छिलके विदुर के चल, योही लाखों किस्से कहूँ मैं क्या, तुम्हें याद हो कि न याद हो॥७॥ वह गोपियों से कहा था क्या करो याद गीता की भी जरा, यानी विरद शरण निबाह का, तुम्हें याद हो कि न याद हो ॥८॥ यह तुम्हारा ही "हरिचन्द” है, गो फसाद में जग के बन्द है, वह है दास जन्मों का भापका, तुम्हें याद हो कि न याद हो ॥ ६ ॥ (८२) छप्पय (७६१) . पदपङ्कज बांछों सदा, जिनके हरि नित उर बसें ॥ योगेश्वरं श्रुतिदेवं, अङ्ग,मुचुकुन्दै, प्रियव्रत जेता ॥