पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१५४

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Anान -04-4-10-rut MAHHHHHB0PMEntri+++ भक्तिसुधास्वाद तिलक। १३५ एर्थ, परीक्षितं, शेष, सूर्त, शौनक, परचेती ॥ सतरूपी, वयसुंती, सुनीति, संती सबही, मन्दालसं । यज्ञपत्ति, ब्रजनारि, किये केशव अपने बस ॥ऐसे नरनारी जित तिनही के गाऊँ जसैं* पदपङ्कज बांछौं । सदा, जिनके हरि नित उर बसैं ॥ १० ॥ (२०४) वात्तिक तिलक। जिन जिन भक्तजनों के हृदय में श्रीहरि भगवान् नित्य ही निवास करते हैं, तिन भक्तों के कमलरूपी चरणों की (मैं मधुपसम) सदा इच्छा करता हूँ-- दो० "जाहि न चाहिय कबहूँ कछु, हरि सन सहज सनेह । वसहि निरन्तर तासु उर, सो हरि को निज गेह॥" (१) ६ (नव योगीश्वर, (१०) श्रीशौनकादिक, इत्यादिक योगीश्वर (११) श्रीपचेतागण, वृन्द । (१२) श्रीसतरूपाजी, उनकी (२) श्रीश्रुतिदेवजी, तीनों कन्या अर्थात्---- (३) राजा श्रीअङ्गजी, (१३) श्रीप्रसूतीजी, (४) श्रीमुचुकुन्दजी, (१४) श्रीशाकूतीजी, (५) जगविजयी श्री (१५) श्रीदेवहूतीजी, प्रियव्रतजी महाराज, (१६) श्रीसुनीतीजी, (६) श्रीपृथुजी (१७) श्रीसती (शिवा) जी, (७) श्रीपरीचितजी. (१८) सम्पूर्णसती (पतिव्रता) (८) सहस्रानन श्रीशेष स्त्रीवर्ग, भगवान्, (१६) श्रीमन्दालसाजी, (६) श्रीसूतजी, (२०) श्रीमथुरावासिनी यज्ञ- पत्नीसमूह

  • जसे यश, माछौ-याचौ ॥