श्रीभक्तमाल सटीक । __(२१) श्री ब्रजगोपिकाबन्द, जिन्होंने भगवान को अपने वश कर लिया ॥ जय जय जय ॥ (२२) भगवत् को इस प्रकार अपने हृदय में वसानेवाले पुरुष वा स्त्रीवर्ग जितने हैं, तिन्हीं के सुयश को मैं नित्य गान करता हूँ और करूँगा। (८३) टीका । कवित्त । (६७०) जिनही के हरि नित उर बसैं तिनही की पदरेनु चैनु दैनु भाभ- रण कीजिये । योगेश्वर श्रादि रस-स्वाद में प्रवीन महा, विपश्रुति- देव ताकी बात कह दीजियै ॥ पाए हरि घर देखि गयो प्रेम भरि- हियो ऊँची कर करि, पट फेरि, मति भीजिये । जिते साधु संग, तिन्हैं विनय न प्रसंग कियो, कियो उपदेश “मोसों बाद, पाँव लीजिय” ॥७३ ॥ (५५६) वातिक तिलक । जिन महानुभावों के हृदय में सर्वदुःखहरनहारे तथा मन हरनेवाले भगवान सर्वदा बसते हैं, तिन्हीं के पदपंकज की सर्वसुख देनेहरि धरि को अपने मस्तक में सदा धारण करना चाहिये । तिन भक्तों में योगीश्वर आदिक प्रेमापराभक्तिरस के के हुए परम प्रवीण प्रसिद्ध ही हैं॥ उनमें से, श्रुतिदेव" नाम ब्राह्मण परम प्रेमी की वार्ता कर देता हूँ- (४१) श्रीश्रुतिदेवजी। एक समय श्रीकृष्णचन्द्रजी दारकाजी से श्रीविदेहपुर (जनकपुर) में निमिवंशी राजा श्रीवहुलास्वजी से जाके मिले, और साथ ही, उसी समय सब साथियों समेत दूसरे रूप से विप्र श्रीश्रुतिदेवजी के घर में भी कृपा करके गए। ये दर्शन करते ही परम प्रेम में भरे, भक्तिरस में मति को भिगोए, ऊँचे हाथों से अपने वन को फिरा २ के, नाचने लगे। परन्तु श्रीकृष्ण भगवान के साथ में और जो सन्त थे, तिनको विनय प्रणाम आदर सत्कार इनने कुछ नहीं किया । तब प्रभु ने इनके प्रेम विचित्रता को देखके स्वयं यों उपदेश किया कि "तुमने सन्तों का तो सत्कार नहीं किया 1 इनको मुझसे अधिक जानके दण्डवत् प्रणाम