पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१५६

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+ i n + H i t +++++ +-+ ++++ ++RAM+++ - +HAP P +-- - भक्तिसुधास्वाद तिलक । तथा पूजन करो॥ ऐसासुन, सुख मान,इनने वैसाही किया। चतुर्मासाभर दोनों के घर कृपा कर रहे, तब भी एक को दूसरे का समाचार नहीं मिला। (४२) योगीश्वर (६) नवो योगीश्वरों के नाम श्रीग्रन्थकर्ताजी आगे चलके (१३) तेरहवें मूल में कहेंगे॥ (४३) राजा श्रीअङ्गजी राजा "अङ्ग” सोमवंशी विद्वरनिवासी बड़े धर्मात्मा थे, इनके पुत्र न था। ब्राह्मणों से यज्ञ कराया । परन्तु देवताओं ने (पूर्व पाप के कारण) यज्ञ स्वीकार न किया बहुत विनयवश ब्राह्मणों ने वसु का यज्ञ किया, वसु महाराज ने प्रकट होकर हविष (क्षीरान) दिया, जिससे राजा वेणु उत्पन्न हुआ। परन्तु वह अपने धर्मात्मा पिता श्रीअङ्गजी की भावानुसार नहीं चलता था। अतः श्रीअङ्गजी चुपचाप अरण्य में जाकर भगवत् के भजन में भली भाँति लगे। भजन-प्रभाव से परमधाम को गए। अङ्ग नाम के दूसरे राजा "अङ्गप्रदेश" (पटना विहार प्रान्त) के थे। इनके पुत्र श्रीरोमपादजी बड़े भक्त हुए । (४४) राजा मुचुकुन्दजी। श्रीमुचुकुन्दजी श्रीअयोध्याजी के राजा थे, देवतों की लड़ाई में बड़ी सहायता की, थकके एक पर्वत के कन्दरे में विश्राम कर रहे थे।श्रीकृष्णचन्द्र "कालयवन" के पीछा करने से भागते भागते उसी खोह में पहुँचे, और अपना पीताम्बर श्रीमुचुकुन्दजी के शरीर पर उढ़ाकर आप कहीं छुप गए। कालयवन इन्हीं को श्रीकृष्णजीसमझकर उलटी पुलटी सुनाने लगा। -इनने आँखें खोली तो इनकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन मृत्यु को प्राप्त हो गया। क्योंकि भक्कापराध का दण्ड शीघ्रतर मिलता है । और भगवान् ने स्वयं इसलिये उसको न मारा कि गर्माचार्य का वचन था कि कालयवन किसी यदुवंशी के हाथ से न मरे॥