पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१६२

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MEANINRHMAdult भक्तिसुधास्वाद तिलक । ..............१४३ त्री के पास नहीं जाने की प्रतिज्ञा करखे ॥” इसी के अनुसार श्रापका विवाह राजारतिध्वज (प्रतर्दन) से हुआ। श्रीमन्दालसाकी कथा श्रीमियादासजी आगे चलके कहेंगे। माता हो तो ऐसी॥ इनके जो पुत्र होता था, श्रीमन्दालसाजी उसको बचपन ही से ऐसा उपदेश किया करतीं कि वह ग्यारहवें ही वर्ष में तीक्ष्ण विरक्त हो, हरिभक्त परम अनुरक्त हो जाता था। इसी प्रकार से जब पांच छः पुत्र विराग और अनुगगपूर्वक हरिभजनपरायण हो ही गए, तव राजा ने बड़ी युक्ति से रानी श्रीमन्दालसाजी से यह वर मांग लिया कि "यह सातवां बेटा अलर्क (सुबाहु) मेरे लिये रहने दो कि राजकाजप्रवृत्ति नीति सीख सके।" वचनवश रानी ने यह बात स्वीकार की। और एक श्लोक लिख के एक यन्त्र अपने इस लघुतम पुत्र सुबाहु के दक्षिणहस्त में बांधके यह सिखा दिया कि “वत्स ! जब तुझपर कोई कष्ट पड़े तो तू इस यन्त्र को खोलके पढ़ना।" पुत्र को राज दिलवा रानी श्रीमन्दालसाजी पति को सुन्दर उपदेश कर, हरिभजन के निमित्त पनि के साथ साथ वन को गई, और सुबाहु (अलक) राज्य करने लगा। वन में अपने पुत्रों को वासनाविगत श्रीहरिपदरत देख अति प्रसन्न हो यह बोली कि “हे पुत्र ! सबसे छोटे सुत की मुझे चिन्ता है उसको भी किसी प्रकार से निवृत्ति मार्ग में लावो ॥" सबसे बड़े पुत्रजी ने मातुवचन सीस धर, घर ा सबसे छोटे भाई (राजा) से उचित वार्ता करके देखा कि वह रजोगुण में बहुत ही डूबा है और उस प्रमाद में उपदेश कुछ काम नहीं करता। तब उनने अपने मामू काशिराज को उभारा, आधा राज देने का वचन दिया, और यों उसने इनके छोटे भाई पर चढ़ाई की। इस संकट के समय सुबाहु (अलक) ने अपनी माता के दिये यन्त्र को खोलके पढ़ा ॥ . चौपाई। . "करै न संग कबहुँ केहु केरो । करे तो सन्तहि संग घनेरो ॥" श्लोक । संगः सर्वात्मना त्याज्यः सचेद्धातुं न शक्यते । ससद्भिः सहकर्तव्यः संगः संगारिभेषजम् ॥१॥