पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४४ mam श्रीभक्तमाल सटीक। शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि, संसारमायापरिवर्जितोऽसि । संसारनिद्रां त्यज स्वप्नरूपां" मन्दालसा वाक्यमुवाच पुत्रम् ॥२॥ यह पढ़ते ही श्रीसीतारामकृपा से श्रीमाता के भासीस से इस वचन का ऐसा अधिकार इनके चित्त पर हुआ कि उसी पण वहीं से वन की ओर चल निकले । श्रीरामकृपा से श्रीदचात्रेयजी मिले। "चालि परम हित जासु प्रसादा । मिलेउ राम तुम शमन विषादा॥" उनके सत्संग के उपरान्त प्रसन्नतापूर्वक अपने बड़े भाईजी से जा मिले तथा माता के चरण पर गिरे और पिता एवं सब भाइयों के सत्संग का श्रानन्द पाया। सब मिल भगवद्भजन करने लगे। दो० “ऐसी श्रीमन्दालसा राम भक्त सिरताज । पति सुत तारण भव उदधि, आपहिं भई जहाज ॥" यह घटना सुन वह राजा भी कि जिसने अलर्क (सुबाहु) पर चढ़ाई कर सुबाहु के जाने पर राज कर रहा था, अपने पुत्र को राज्य दे उन्हीं के पास जा भगवद्भजनपरायण हो गया। श्रीमन्दालसाजी की जय ॥ (५८) श्रीसती जी (श्रीउमाजी) दक्षसुता श्रीसतीजी महागनी की कथा, श्रीशिवजी की कथा के अन्तर्गत (पृष्ठ ६२१६३) हो चुकी है। "सिय बेष सती जो कीन्ह तेहि अपराध शंकर परिहरी। हर विरह जाइ बहोरि पितु के यज्ञ योगानल जरी ॥" (५८) यज्ञपत्नी (श्रीमथुरानी चौबाइन)। संसार का प्राण"प्रेम"ही है। भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजी ने गऊ चगते समय एक दिन चतुर्वेदी विषों (चौवे लोगों) को, यज्ञ करते देखा, अपने सखाओं को उनसे भोजन मांगने के लिये भेजा, चौधे लोगों ने नहीं दिया, सखा सब लौट आए॥ पुनः प्रभु ने उनको भेजा कि "चौबाइनों (उनकी स्त्रियों) से माँगना"। ब्रजचन्द महाराज का नाम सुनते ही वे सब अतिशय प्रेम से (अपने पतियों की मात्रा के विरुद्ध) थालियों में भोजन व्यञ्जन ले ले