पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१६४

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भक्तिसुधास्वाद तिलक .................१४५.. बन में पहुँच, श्रीनन्दनन्दन महाराज को सखाओं समेत भोजन करा, मनमानी भक्ति का बरदान पा, घर घर अा मंगलकारिणी हुई ॥ सर्वया । "रूप गुन्यो प्रथमै सुनिक हरि देखन की अति लालसा जागी। आय प्रत्यक्ष लखी तिनको अपने को गुनी जग में बड़ भागी। श्रीरघुराज अनूप स्वरूप हिये धरि मंदि हगैं अनुरागी। मोहन को मिलि के मन में द्विजनारि बुझाइ दई विरहागी।" (६०)श्रीगोपिकान्द। "प्रेम"-हा । इस शब्द (प्रेम) के तो सुनते ही हृदय की कुछ और ही दशा हो जाती है, नेत्रों के सामने एक व्यवधान सा आ जाता है। प्रिय पाठक ! संसार में ऐसा कौन सा अन्तःकरण है कि जिस पर इस तीक्ष्णशस्त्र ने अपना कठिन घाव न किया हो ? चाहे थोड़ा चाई बहुत । परन्तु कहीं कहीं तो इसने ऐसी अपूर्व तथा विलक्षण दशा प्रकट की है कि जिसके सुनने समझने से बड़े बड़े कठोर चित्तवालों के नयनों से भी मघा की सी झड़ी लग जाती है। श्रीब्रजगोपियाँ ज्ञान और भक्ति की सानि वरच साक्षात् परा प्रीति ही तो थीं ।।। __ "श्री नारद भक्ति सूत्र” देखिये । वेद, ब्रह्मा, शिव, शेष, सनकादि, गणेश, नारद, शारदा. सूत, श्रीनामास्वामी, श्रीतुलसीदासजी, श्रीसूर- दासजी इत्यादिक बड़े-बड़े कुशल, कोई भी तो श्रीबजगोपिकाओं की पूरी प्रशंसा न कर सका, पर अपनी अपनी वाणी को कृतार्थ करने के हेतु कोई कुछ न कुछ कहे चिन रहा भी तो नहीं । __ आज तक साधारण लोक भी इनके प्रेम को गाते ही हैं। श्रीब्रज के कंज-कंज घर-घर हाट घाट बाट से सुन्दरियों की ऐसी पुकार सुनाई देती है कि-"हायश्याम ! मिलिहौ कबै तुम बिन बिनु युग जात ॥ १॥" ऊधो ! जोग कहत है काको । की दधि माखन के चाखन को, लाखन खन ताको॥ की जमुनातट पनघट ऊपर घट पटकन लीला को।