पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

श्रीभक्तमाल सटीक (७) श्रीवाल्मीकिजी, दूसरे । (१४) श्रीसुस्थनी (८) श्रीमिथिलेशजी महाराज (१५) श्रीसुधन्वाजी (8) जो जो श्रीविदेहवंशी । (१६) राजा श्रीशिविजी श्रीभगवद्भक्ति के पथ में| (१७) अतिसुमति श्रीवलिपत्नी चले, ते सब रानी-श्रीविन्ध्यावलीजी (१०) श्रीरुक्माङ्गदजी (१८) श्रीनीलनी (१३) श्रीहरिश्चन्द्रजी (१६) श्रीमयूरध्वजनी (१२) श्रीभरतजी | (२०) श्रीताम्रध्वजजी (१३) परमोदार श्रीदधीचिजी (२१) श्रीअल कंजी (८५) टीका । कवित्त । (७५८) जन्म पुनि जन्म को न मेरे कछु सोच, अहो । सन्तपद कंजरेनु सीसपर धारिये । प्राचीनवर्हि आदिकथा परसिद्ध जग, उभै वालमीकि वात चित्ततें न गरिये ॥ भए भील संग भील, ऋषि संग ऋषि भए, भए राम दरशन, लीला विसतारिये । जिन्हें जग गाय किहूं सकै ना अघाय चार भाय भरि, हियो भरि, नैन भरि ढारिये ॥ ७४ ॥ (५५.५) वात्तिक तिलक । अहो । मुझको इस बात का तो कुछ भी शोच नहीं है कि मोक्ष न पाके जगत् में बारंचार जन्म लूं, क्योंकि जन्म लेके यदि सन्तों के चरण कमल की रज शीश पर धारण करूं तो मुक्ति से भी अधिकतर सुख मानूंगा। प्राचीनवहीं श्रादिक भक्तों की कथा श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्थों से जगत में प्रसिद्ध ही है। परन्तु महर्षि श्रीवाल्मीकि जी, तथा दूसरे बाल्मीकिजी, इन दोनों भक्तों की कथा चित्त से न चलना चाहिये क्योंकि दोनों की वार्ता अनोखी हैं। (६१) महर्षि श्रीबाल्मीकिजी आदि कवि श्रीवाल्मीकिजी भिल्लों का संग पाके भिल्ल ही हो गए, पुनः श्रीसप्तर्षि के सत्संग से महर्षि हो गए, कि साक्षात् श्रीसीताराम लक्ष्मणजी ने आपके आश्रम में जाके दर्शन दिया। आपने विस्तारपूर्वक श्रीरामायणलीला को गान किया, कि