पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१६८

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Suntand ane भक्तिसुधास्वाद तिलक । जिसके श्रवण अनुकथन से संसार के सज्जनों को किसी प्रकार से तृप्ति होती ही नहीं। “रामचरित जे सुनत अघाहीं। रस विशेष जाना तिन नाहीं॥” वरंच श्रवण और गान करने पर अत्यन्त चाव भाव हृदय में भर पाता है। और नेत्रों से प्रेमाश्रु का प्रवाह ढलने लगता है । सो० "वन्दौं मुनि पद कंज, रामायण जिन निर्मयउ । सखर सकोमल मंजु, दोष रहित दूषण सहित ॥" श्रीवाल्मीकिजी थे तो ब्राह्मण परन्तु भीलदारा पाले गए तथा भीलिनी ही से विवाह भी हुथा। पथिकों को मारना लूटना यही उनका उद्यम था । “को न कुसंगति पाइ नशाई।" करुणाकरहरि की इच्छा से एक दिन श्रीसप्तर्षि ( १ कश्यप २ अत्रि ३ भरद्वाज ४ बसिष्ठ ५ गौतम ६ विश्वामित्र और७जमदग्नि) उसी ओर से जा निकले । इन्हें भी जब आपने लूटना मारना चाहा तो महात्माओं ने यो उपदेश दिया कि "२ दिजाधम! दो जो तेरे यमदण्ड में, भागी होइ न कोइ ! तो कतकीजति पाप हठि, घोर दण्ड जिहि होइ?" चौपाई। सुत तिय उत्तर दियो प्रचण्डा। "हम नाहीं भागी यमदण्डा।" श्रीसीताराम कृपा से महाभागवत सप्तर्षि के दर्शन सम्भाषण से उनकी किरातबुद्धि जाती रही, विरक्ति तथा सुबुद्धि उत्पन्न हुई, “पाहि पाहि" कह, चरण पर गिर, अपने कल्याण का उपदेश पूछा । दिव्यदर्शन करुणा पूर्ण सन्तों ने कृपा करके देशकाल पात्रानुसार श्राज्ञा यह दी कि “मरा मरा रट ।" वे वहीं बैठ अमित काल पर्यन्त “मरामरामरामरा” रटते जपते रहे। ' चौपाई। “सठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पारस परसि कुधातु सुहाई ॥" सहस्र युग बीतने पर पुनः श्रीसप्तर्षि कृपा करके उधरही से पाए और वाल्मीकि (वामी) में से अन्वेषण करके उन्हें ढूंढ निकाला,