पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१७

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HAPmgandJRNM-4Hum+IHINover गगन श्रीभक्तमाल सटीक 1 द्वैपायनो विरहकातर बाजुहाव । पुत्रेति तन्मयतया तखोऽभिनेदुस्तं सर्व- भूतहृदयं मुनिमानतोस्मि" ॥ १॥ दो० भक्तमाल श्राचाय्य वर, श्रीनामा पदकंज। प्रियादास पदकमलपुनि, बंदा मङ्गल पुंज ॥ “सन्त सरलचितजगत् हित,जानि सुभाव सलेहु । बाल विनय सुनि करि कृपा, रामचरण रति देहु ।।" गोस्वामी "श्रीनाभाजी” करुणासिंधुकृत "श्रीभक्तमाल" जी की प्रसिद्ध टीका "श्रीभक्तिरसवोधिनी के कर्ता, श्रीप्रियादासजी कृपा- निधि, यों कहते हैं कि “महाप्रभु श्रीकृष्ण चैतन्य मनहरण" पदकंज का, तथा तद प मनहरण [निज स्वामी] "श्रीमनोहरदास" जी का, ध्यान एक समय अपने मन में मैं कर रहा था, और साथ ही साथ श्रीनामकीर्तन भी । उसी समय गास्वामी श्रीनाभाजी ने मुझे धाज्ञा दी कि "भक्तमाल की विस्तृत टीका करो, और ऐसी कि कवित्त छंद से बंध बहुत ही मधुर तथा प्रिय लगे, और जगत् में प्रसिद्ध होवे ।।" ऐसी आज्ञा दे जब आप की वाणी शान्त हो गई, तब मुझे अपनी मति अति मंद जानकर पहिले अपने को संकोच तो निःसन्देह बड़ा भारी हुश्रा ही, परन्तु यह विचार करके श्राज्ञा को सीस पर धर लिया कि "श्रीमद्भागवत" में सुन चुका हूँ कि “परमहंस श्रीशुकदेवजी" वृक्षों में प्रवेश करके, स्वयं बोल उठे थे और “शुकोहम्, शुकोहम्” कहने लगे थे, ऐसे ही मुझ जड़मति में भी स्वयं श्रीनाभाजी ही प्रवेश करके अपनी कृपा से ही मुझसे भी तिलक बनवा लेंगे। इसमें आश्चर्य वा संदेह ही क्या है ।। श्रीमद्भागवत के भारम्भ मे ही कहा है कि जब श्रीशुकदेव भगवान् जन्मते ही परम विरक्तिमान् सव त्यागकर, घर से निकल वन को चल दिये, और उनके पिता श्रीव्यास भगवान पुत्र के (उनके) विरह मे कातर होकर उनके पीछे पीछे "हे पुत्र ! हे पुत्र " ऐसा पुकारते हुए साथ हो लिये, तब योगीश्वर सर्वहृदयप्रवेशक श्रीशुकदेवजी ने तो पीछे की ओर मुंह तक भी न फेरा, और न साक्षात् उत्तर ही (महर्षि पिताजी को) दिया, किन्तु उस प्रदेश के समस्त वृक्षगण आप आप को बोलने लगे कि "हाँ, मैं शुक हूँ, मै शुक हूँ, क्या आज्ञा होती है ? "