पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१८

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जालना HMMMmmpetatinduga.rane - HINHERIADI. M A HAPAhmedirty- भक्तिसुधास्वाद तिलक । दो० “सरल वरण, भाषा सरल, सरलअर्थ मय मान । तुलसी सरल सन्त जन, जाइ करिय पहिचान ॥" (२) टीका का नाम स्वरूप वर्णन कवित्त (८४१) रची कविताई सुखदाई लागै निपट सुहाई श्री सचाई पुनरुक्ति लै मिटाई है । अक्षर मधुरताई अनुप्रास जमकाई, अति छवि बाई मोद झरीसी लगाई है ॥ काव्य की बड़ाई निज मुख न मलाई होति नाभा जू कहाई, याते (ताते) प्रौढ़िक सुनाई है। हृदै सरसाई जोपै सुनियै सदाई, यह "भक्तिरसवोधिनी” सुनाम टीका गाई है ॥ २॥ (६२७) तिलक। कविताई ऐसी रची है, कि अति सुहाई (सुहानेवाली) और सुखदाई लगती है, पुनरुक्ति के दोष को भी मिटा डाला है, सचाई, और कोमल अक्षरों की मधुरता, (रसों के स्वरूपादि और टीका के विचित्र चमत्कार) तथा अनुमासों और यमकों को छवि ने मोद (श्रानन्द) की दृष्टि सी बरसाई है। अस्तु । अपने काव्य की प्रशंसा ("आप मुँहमिट्ठू) अपने ही मुख से कहनी, कुछ अच्छी बात तो नहीं है, परन्तु श्रीनाभाजी ने कहलाई है, (जैसी कि ऊपर निवेदन कर चुका हूँ) अतएव पुष्टता से कहने में आ गई, सज्जन विचारवान इसको क्षमा करेंगे। यदि इसको नित्यशः कोई पढ़े सुनेगा तो अवश्यमेव उसका अंतःकरण श्रीहरिभक्ति महारानीजी की कृपा से निःसन्देह सरस हो पावेगा ॥ ऐसी टीका (गाई है) की है और इसका नाम “भक्तिरसबोधिनी है। (३) श्रीभक्ति स्वरूप 1 कवित्त (८४०) 'श्रद्धा ई (ही) फुलेल श्री उबटनो 'श्रवण कथा', मैल अभिमान, अंगअंगनि छुड़ाइये । मनन सुनीर, अन्हवाइ अंगुकाइ दया', 'नवनि' वसन, पन' सोधो,लै लगाइये।ाभरन नाम हरि', 'साधुसेवा कर्णफूल, 'मानसी सुनथ, संग' अंजन, बनाइये । “भक्ति महारानी को सिंगार चारु, बीरी चाह', रहै जो निहारि लहै लाल प्यारी, गाइये ॥३॥(६२६)